राखीगढ़ी से संबंधित अध्ययन दिखाता है कि वहां से जिस इकलौते कंकाल से अध्ययन के लिए संतोषजनक रूप से प्राचीन डीएनए मिला है, वह कंकाल किसी महिला का है, जिसे समारोहपूर्वक अब से लगभग 4,500 साल पहले दफन किया गया था। इसका मतलब यह है कि यह स्तेपी के लोगों के दक्षिण एशिया में आगमन से पहले का है। स्तेपी के लोगों का आगमन इसके 600 से 1000 वर्ष तक बाद में हुआ था।
उक्त प्राचीन डीएनए में, स्तेपी के लोगों की जैनेटिक निशानियां गैर-हाजिर हैं और इसलिए इसकी प्रबल संभावना है कि सिंधु घाटी सभ्यता का निर्माण ऐसे लोगों ने किया था जिनके जैनेटिक संरचना में स्तेपी की निशानियां नहीं थीं, जबकि आज की उसी क्षेत्र की आबादी में या कम से कम दक्षिण एशिया के सवर्ण पुरुषों में स्तेपी के लोगों की ये निशानियां प्रमुखता से पायी जाती हैं।
प्राचीनकालीन डीएनए और दक्षिण एशिया में आबादियों के आवागमन पर, दो ताजातरीन अध्ययन, करीब-करीब एक साथ सामने आये हैं। इन अध्ययनों का प्रकाशन, अपने-अपने अनुशासन के दो सबसे प्रतिष्ठिïत प्रकाशनों, साइंस और सैल में हुआ है। अनेक लेखक इन दोनों अध्ययनों में शामिल हैं और इन अध्ययनों के लिए हार्वर्ड की जेनेटिक्स लेबेरेटरी के संसाधनों का उपयोग किया गया है। ये दोनों ही शोध आलेख, अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
दो नवीनतम अध्ययन
साइंस का शोध आलेख ईरान, मध्य एशिया तथा एनातोलिया की अनेक प्राचीनकालीन बसाहटों से मिले 523 डीएनए नमूनों की जानकारी देता है और उनकी तुलना उक्त इलाकों और दक्षिण एशिया की आज की आबादी के डीएनए नमूनों से करता है। इस अध्ययन ने ऐसे प्राचीन डीएनए नमूनों के अध्ययन के हमारे दायरे में पूरे 25 फीसद की बढ़ोतरी कर दी है।
दूसरी ओर, सैल के शोध आलेख में ऐसे सिर्फ एक ही नमूने का अध्ययन है। वास्तव में यह अब तक का दक्षिण एशिया के इलाके का अब तक मिला इकलौता प्राचीन मानव डीएनए नमूना है। यह नमूना सिंधु घाटी के एक स्थल से और उस जमाने से है, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता के खूब फल-फूल रहे होने का जमाना माना जाता है। जैसाकि इस अध्ययन के एक लेखक ने अपनी टिप्पणी में बताया है, प्राचीन डीएनए हासिल करने के लिहाज से ठंडे तथा खुश्क क्षेत्र बेहतर होते हैं और भारतीय उप-महाद्वीप न तो ठंडा है और खुश्क। इसका नतीजा यह है कि इस क्षेत्र में ऐसे प्राचीन कंकाल हैं ही बहुत कम, जिनसे डीएनए हासिल हो सकता हो। राखीगढ़ी के मुर्दे गाढऩे के स्थान के 61 कंकालों से, डीएनए का सिर्फ एक ऐसा नमूना निकला है, जिसकी सही तरीके से डीएनए सीक्वेंसिंग की जा सकती है। बहरहाल, वैज्ञानिक समुदाय के लिए यह भी अपने आप में एक बहुत भारी उपलब्धि है। वागीश नरसिम्हन ने, जो उक्त दोनों शोध आलेखों के मुख्य लेखकों में से हैं और डेविड राइख ने, जो हार्वर्ड जेनेटिक्स लेबोरेटरी के मुखिया हैं, प्राचीन डीएनए के संकेतों को, अन्य प्रदूषणों के पृष्ठïभूमि के शोर से अलग कर के दुनिया के सामने लाने की कठिनाइयों का भी वर्णन किया है और इसका भी वर्णन किया है कि किन उपायों से प्राचीन डीएनए के संकेतों के स्वर को कई गुना तेज किया गया है, ताकि पृष्ठïभूूमि को शोर से अलग कर के इन संकेतों को सुना जा सके।
भारोपीय भाषाभाषियों का दक्षिण एशिया में आना
इस स्तंभ में इससे पहले भी हार्वर्ड में राइख ग्रुप उसके सहयोगियों के इससे पहले शोध परिणामों के संबंध में बता चुके हैं, जिनके दायरे में भारत समेत सारी दुनिया आती थी। अपने अध्ययन के जरिए उन्होंने यह बताया था कि प्राचीन डीएनए नमूने स्तेपी के लोगों के, ब्लैक सी और कैस्पियन सी के बीच के क्षेत्र से निकलने की गवाही देते हैं और इससे ही आज के योरपीय जन समूह और दक्षिण एशियाई आबादी के जैनेटिक प्रोफाइलों की व्याख्या की जा सकती है। इसका बड़ी निकटता से उन वर्तमान भाषायी ग्रुपों से भी मेल बैठता है, जिन्हें भारोपीय भाषा परिवार के नाम से जाना जाता है। यह अध्ययन बताता है कि दक्षिण एशिया की आबादी के वर्तमान जैनेटिक प्रसार में, उत्तरी भारत की ब्राह्मïण पुरुष आबादी में स्तेपी के पूर्वजों के जैनेटिक तत्व ज्यादा प्रभावी नजर आते हैं। इस इलाके में जैसे-जैसे हम दक्षिण की ओर या पूर्व की ओर बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे यह जैनेटिक प्रभाव घटता जाता है। इससे यह पता चलता है कि स्तेपी के लोग उत्तर-पश्चिम की ओर से दक्षिण एशिया में आए थे। साइंस में आए ताजातरीन अध्ययन से इस तस्वीर की ही पुष्टिï होती है और अब और ज्यादा डॉटा नमूनों के आधार पर यह बात कह सकते हैं।
बहरहाल, साइंस के आलेख का असली महत्व हम तब समझ पाएंगे, जब उसे हम सैल के राखीगढ़ी से संबंधित आलेख के साथ जोडकऱ देखें। राखीगढ़ी से संबंधित अध्ययन दिखाता है कि वहां से जिस इकलौते कंकाल से अध्ययन के लिए संतोषजनक रूप से प्राचीन डीएनए मिला है, वह कंकाल किसी महिला का है, जिसे समारोहपूर्वक अब से लगभग 4,500 साल पहले दफन किया गया था। इसका मतलब यह है कि यह स्तेपी के लोगों के दक्षिण एशिया में आगमन से पहले का है। स्तेपी के लोगों का आगमन इसके 600 से 1000 वर्ष तक बाद में हुआ था। उक्त प्राचीन डीएनए में, स्तेपी के लोगों की जैनेटिक निशानियां गैर-हाजिर हैं और इसलिए इसकी प्रबल संभावना है कि सिंधु घाटी सभ्यता का निर्माण ऐसे लोगों ने किया था जिनके जैनेटिक संरचना में स्तेपी की निशानियां नहीं थीं, जबकि आज की उसी क्षेत्र की आबादी में या कम से कम दक्षिण एशिया के सवर्ण पुरुषों में स्तेपी के लोगों की ये निशानियां प्रमुखता से पायी जाती हैं।
वैदिक-भाषियों से स्वतंत्र और पुरानी थी सिंधु सभ्यता
इससे भी ज्यादा ध्यान खींचने वाला था बैक्ट्रिया मार्जिआना ऑर्कियोलॉजीकल कांम्प्लैक्स (बीएमएसी) के हिस्से के तौर पर पूर्वी ईरान के शहर-ए-सोख्ता और आधुनिक तुर्कमेनिस्तान के गोनुर में, दो पुरातात्विक स्थलों पर 11 कंकालों का पाया जाना। इन कंकालों का, अन्य कंकालों से हासिल हुए डीएनए से कोई मेल नजर नहीं आता है, लेकिन जैनेटिक रूप से राखीगढ़ी के डीएनए नमूने से उनका बहुत घनिष्ठï रिश्ता नजर आता है। दूसरी ओर ये सभी 12 कंकाल--शहर-ए-सोख्ता तथा गोनुर के 11 और राखीगढ़ी का एक--प्राचीन दक्षिण एशियाई आबादी की प्रबल निशानियां प्रदर्शित करते हैं और प्राचीन ईरानी शिकारी-भोजन संग्रहकर्ताओं की जैनेटिक निशानियां तो दिखाते ही हैं।
इस सब के आधार पर हम अब दो बातें पर्याप्त स्पष्टïता से कह सकते हैं। पहली यह कि सिंधु घाटी के लोगों की गोनुर तथा शहर-ए-सोख्या में व्यापार चौकियां जैसी रही होंगी। लेकिन, वे स्थानीय आबादी के साथ वैवाहिक संबंध नहीं बनाते थे। दूसरे, राखीगढ़ी, गोनुर तथा शहर-ए-सोख्ता के कंकाल इस दौर में स्तेपी के लोगों की निशानियां नहीं दर्शाते हैं, जबकि इन्हीं इलाकों में बाद के दौरों में तथा वहां की आज की आबादियों में स्तेपी के लोगों की निशानियां बखूबी नजर आती हैं। साफ है कि उक्त तीनों आबादी केंद्रों में, उस दौर तक स्तेपी के लागों का आगमन नहीं हुआ था।
सिंधु घाटी में खेती का भी स्वतंत्र रूप से विकास
एक और ध्यान खींचने वाली खोज यह है कि सिंधु घाटी के लोग--राखीगढ़ी का इकलौता और गोनुर व शहर-ए-सोख्ता के 11 कंकाल--जैनेटिक निशानियों के आधार पर ईरान के जगरोस पर्वत की शिकारी-खाद्य संग्रहकर्ता आबादी से घनिष्ठï रूप से जुड़े हुए तो थे, लेकिन करीब 12,000 साल पहले उनसे अलग होकर निकल गए थे। यह विभाजन, जगरोस पर्वतों में खेती के जन्म से पहले का है और इसके साक्ष्य हैं कि खेती सिंधु घाटी में स्वतंत्र रूप से उदय हुआ था, जैसे कि अनातोलिया में और जगरोह के पहाड़ों में खेती का उदय हुआ था। इसलिए, ऐसा नहीं है कि ईरान की खेती करने वाली आबादी ही सिंधु घाटी में अपने साथ खेती लेकर आयी हो। उनके भी पुरखे सिंधु घाटी में आए थे और वह भी तब जब तक वे शिकारी-खाद्य संग्रहकर्ता ही थे और सिंधु घाटी में आने के बाद उन्होंने यहीं स्वतंत्र रूप से खेती का विकास किया था।
सिंधु घाटी में खेती का विकास, उपजाऊ क्रीसेंट में उसके विकास से समांतर और स्वतंत्र रूप से हुआ था। जहां उपजाऊ क्रीसेंट में दो जगहों पर स्वतंत्र रूप से खेती का विकास हुआ था, वहीं दोनों के बीच दोनों दिशाओं में आदान-प्रदान चलता रहा था। लेकिन, जैनेटिक सामग्री का ऐसा दुतरफा प्रवाह, सिंधु घाटी के लोगों और जगरोस पहाड़ के लोगों के बीच नहीं हुआ था।
संघ के आर्यों के असली भारतीय होने के झूठे दावे
दक्कन कॉलेज के पूर्व-वाइस चांसलर, प्रो0 शिंदे ने राखीगढ़ी में पुरातात्विक खुदाई का नेतृत्व किया था और प्रो.राइख के गु्रप को राखीगढ़ी के कंकाल मुहैया कराए थे। वह राखीगढ़ी संबंधी शोध आलेख के लेखकों में से एक थे। बहरहाल, वह आरएसएस के साथ साथ उनके जुड़े होने की बात आम जानकारी में है और वह आरएसएस के विज्ञान संबंधी संगठनों में शामिल रहे हैं। एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने दावा किया कि राखीगढ़ी के जैनेटिक साक्ष्य किसी न किसी तरह से यह साबित करते हैं कि भारत में आर्य बाहर से नहीं आए थे और सिंधु घाटी के लोग संस्कृत बोलते थे। प्राचीन डीएनए के साक्ष्यों के आधार पर, सिंधु घाटी के लोग कौन सी भाषा बोलते थे इसका दावा किए जाने का बेतुकापन स्वत:स्पष्टï है। मानव डीएनए से किसी भी तरह से इसका पता लगाया ही नहीं जा सकता है कि वह कौन सी भाषा बोलता होगा। प्रोफेसर शिंदे एक पुरातत्वविद हैं और प्राचीन डीएनए साक्ष्यों के आधार पर एक जनसमूह की भाषा के संबंध में उनका दावा करना, अपनी विद्वत्ता के क्षेत्र से बाहर जाकर उनका मनमाने दावे करना ही माना जाएगा। वास्तव में उक्त शोध आलेख के अन्य सभी प्रमुख लेखकों ने विनम्रता से इस सचाई को रेखांकित भी किया है कि राखीगढ़ी से मिले प्राचीन डीएनए के साक्ष्य, प्रो0 शिंदे के दावों से मेल ही नहीं खाते हैं। याद रहे कि इस शोध के इन प्रमुख लेखकों में, लखनऊ के बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट के नीरज राय और वागेश नरसिम्हन के नाम शामिल हैं। दूसरे देशों में आम तौर पर प्राचीन डीएनए पर आधारित ऐसे अध्ययनों और उनके निष्कर्षों में विद्वानों की ही दिलचस्पी होती है। लेकिन, आज के भारत में ऐसी हरेक चीज पर फौरन विवाद खड़ा हो जाता है। हिंदुत्ववादी पलटन की धारणाओं का पूरा का पूरा महल ही इस विश्वास पर टिका हुआ है कि संस्कृत और वैदिक भाषा बोलने वाले, भारत में हमेशा से थे और वही भारत के मूल निवासी हैं। अगर यह साबित हो जाता है कि संस्कृत और वैदिक भाषा बोलने वाले भारत से बाहर से कहीं से आए थे, तब तो इनका पूरा का पूरा सांप्रदायिक मंच ही बैठ जाएगा, जो इसी के दावों पर टिका हुआ है कि भारत हिंदुओं की ही पितृभूमि तथा पुण्यभूमि है और इसलिए, इस देश पर हिंदुओं का खास और सबसे बढकऱ दावा है। तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि ऋग्वेदिक आर्य, बाहर से भारत में आने वाले कई समूहों में से एक समूह भर थे।
अब उन्हें जैनेटिक साक्ष्य भी मंजूर नहीं
इसलिए, आरएसएस और हिंदू श्रेष्ठïतावादियों के लिए, इसके सारे के सारे साक्ष्य अस्वीकार्य ही होंगे कि वैदिक संस्कृत बोलने वाले, जो वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार की भाषा है, भारत में बाहर से आए थे। जाहिर है कि उनके लिए ऐसे सभी साक्ष्य कोई इसलिए अस्वीकार्य नहीं होते हैं कि उनसे ज्यादा वजनी विरोधी साक्ष्य मौजूद हैं बल्कि ऐसे सभी साक्ष्य उनके लिए इसलिए अस्वीकार्य होते हैं कि इन साक्ष्यों का उनके विश्वासों से मेल नहीं बैठता है। अचरज नहीं कि मोदी सरकार द्वारा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आइसीएचआर) के अध्यक्ष पद पर बैठाए गए (अब सेवानिवृत्त) प्रो. वाइ एस राव तो यह कहने की हद तक चले गए थे कि भारत के मौखिक इतिहास (मिथकों व महाकाव्यों) को ही असली इतिहास माना जाना चाहिए और साक्ष्यों के रूप में उन्हें, तमाम पुरातात्विक और भाषाशास्त्रीय साक्ष्यों के ऊपर स्थान दिया जाना चाहिए! इस तरह उन साक्ष्यों की सूची में जिन्हें संघियों के अनुसार, मिथकों और पुराणों के मुकाबले निचले दर्र्जे में रखा जाना चाहिए, अब जैनेटिक सामग्री के साक्ष्य भी जुड़ जाते हैं। इन साक्ष्यों से निकलने वाले निष्कर्ष उन्हें तभी और सिर्फ तभी मंजूर होंगे, जब उनसे संघियों के इसके दावों की पुष्टिï होती हो कि भारोपीय भाषा बोलने वालों का निकास, दक्षिण एशिया में ही है, उसके बाहर कहीं नहीं।
प्रबीर पुरकायस्थ
लेखक- न्यूज क्लिक के चीफ एवं ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क से जुड़े है।
साभार - न्यूज क्लिक
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