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पी के मूर्ती : एक असाधारण क्रांतिकारी 

22 मार्च की देर रात पॉन्डिचेरी के नल्लम क्लिनिक में कामरेड पी के मूर्ती ने आखिऱी सांस ली। वे अपने बचपन के दोस्त और पॉन्डिचेरी के सबसे लोकप्रिय चिकित्सक डॉ. नल्लम की देखरेख में दो साल से इलाज करा रहे थे - हम सबको बताया...

22 मार्च की देर रात पॉन्डिचेरी के नल्लम क्लिनिक में कामरेड पी के मूर्ती ने आखिऱी सांस ली। वे अपने बचपन के दोस्त और पॉन्डिचेरी के सबसे लोकप्रिय चिकित्सक डॉ. नल्लम की देखरेख में दो साल से इलाज करा रहे थे - हम सबको बताया एक साल पहले ही था। अपनी तकलीफों और कामयाबियों के बारे में बताना उनकी आदत में नहीं था।  

फ्रांसीसी कब्जे वाली पॉन्डिचेरी के 10 बड़े परिवारों में से एक परिवार के इकलौते बेटे एडमण्ड रेटिनी के रूप में उनका जन्म फ्रेंच कब्जे वाले वियतनाम के सैगोन शहर में हुआ था जहां उनके पिता एक बड़े अफसर के रूप में पदस्थ थे। उनकी शुरुआती पढ़ाई वियनतनाम में हुयी।  परिवार के पॉन्डिचेरी लौट आने के बाद सेकेंडरी की स्कूली पढ़ाई यहां के फ्रेंच स्कूल में हुयी।  इसी दौर में वे पेरियार के जाति-विरोधी आंदोलन से प्रभावित हुए और उसमे शामिल हो गए।  

1962 में वे एमएससी इंजीनियरिंग करने पेरिस चले गए।  यहां उन्हें अनिवार्य मिलिट्री सेवा के तहत फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जीरिया की बगावत को कुचलने के लिए  लडऩे वाली फ्रेंच सेना में भर्ती कर लिया गया। उन्होंने अल्जीरिया वासियों की आज़ादी की मांग को जायज बताते हुए इस लड़ाई को लडऩे से इंकार कर दिया। जिसके चलते उन्हें छह माह की सजा सुनाई गयी - इसे फ्रांस की एक जेल में रहकर उन्होंने काटा।  उपनिवेशवाद, नस्लवाद, जातिवाद के खिलाफ उनकी समझ इन्ही अनुभवों के साथ परवान चढ़ी।  इसी दौरान जेल में ही पढ़ते हुए वे फ्रांज फेनोन और माओ की लेखनी से प्रभावित हुए।  जेल से रिहा होने के बाद फ्रांस की सोर्बोंन यूनिवर्सिटी में उन्होंने चीनी भाषा के शोध-छात्र के रूप में दाखिला लिया।  इसी बीच फ्रांस के छात्रों का वह ऐतिहासिक विद्रोह शुरू हो गया जिसने वहां के राष्ट्रपति द गाल की चूलें हिला दीं, अपनी झंकार से पूरी दुनिया में धमक   मचा दी।  मूर्ती इस आंदोलन में शामिल हो गए और इस तरह इस स्टूडेंट रिबेलियन और ज्यां पॉल सात्र्र आदि के प्रभाव में आकर मार्क्सवादी हो गए।

बचपन में कुछ समय उन्होंने तबके अमरीकी आधिपत्य के खिलाफ वियनामियों की लड़ाई में वियनामी गुरिल्लोंं के कूरियर - संदेशवाहक - का काम भी किया।
यह सब उन्होंने कभी किसी को नहीं बताया। 2019 जब नीना, जिससे वे कुछ ज्यादा ही स्नेह करते थे, और हम उन्हें पहली बार देखने पॉन्डिचेरी गए थे तब बड़ी मुश्किल से उन्हें खुद के बारे में खुलकर कुछ बताने के लिए राजी किया और यह जानकारी जुटाई।  

अपने अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों के साथ मूर्ती जब भारत लौटे तब तक नक्सलबाड़ी हो चुका था।  वे अपनी राजनीतिक वैचारिक सहयोगी और 6 नवम्बर 1966 से उनकी जीवन साथी नीता (चुना हुआ नाम) के साथ नक्सल आंदोलन से जुड़े और अपना क्रांतिकारी काम जारी रखने के लिए मध्यप्रदेश आकर एडमण्ड रेटिनी से नाम बदल कर पी के मूर्ती  हो गए। क्रांतिकारी काम की शुरुआत के लिए इन दोनों ने  छिंदवाड़ा की कोयला खदान के पेंच कन्हान इलाके को चुना और एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। मजदूरों से संपर्क बनाने और जीवनयापन के लिए दोनों ने मिलकर पहले अण्डे बेचे, उसके बाद ईंट भट्टे पर मजदूरी की फिर कोयले में ठेका मजदूर के रूप में भर्ती हो गए। कोयला मजदूरों की अपनी तरह की जुझारू यूनियन बनाने में अनेक हमलों का निशाना बने - इनमे उनके तीन साथी शहीद भी हुए - मगर काम  जारी रखा। 

क्रान्ति और विचार के प्रति उनका समर्पण कितना अटूट था इसे इसी बात से जाना जा सकता है कि भूमिगत जीवन के इन पूरे 40 वर्षों में  वे न अपनी माँ से मिले, न पॉन्डिचेरी अपनी संपत्ति देखने गए। उनकी माँ इसी बीच चल बसीं।  पेरिस में अध्यापक का काम कर रही उनकी बहन से  9 जनवरी 2020 को अपनी दूसरी यात्रा में हुयी चर्चा से हमे पता चला कि किस प्रकार अचानक 40 साल बाद मूर्ती उनके पेरिस के मकान में जा पहुंचे थे - आधा घंटे तक बात करने के बाद उनकी बहन उन्हें  पहचान पाई कि वे कौन हैं।  उनके बालसखा डॉ नल्लम ने बताया कि किस तरह  40 साल बाद आये एक फोन पर जब उन्होंने अपने लिए बाबू का संबोधन सुना तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि जिसे वे मरा हुआ माने बैठे थे वह एडमण्ड (अब मूर्ती) कहाँ से आ गया।  डॉ नल्लम ने अपनी दोस्ती आखिर तक निबाही और जैसा इलाज और सेवा उन्होंने की वह इस डॉक्टर की मनुष्यता और महानता दोनों का उदाहरण है।  

कामरेड मूर्ती के वैचारिक आग्रह इतने मजबूत थे कि क्रान्ति के तरीकों और वर्गों के आंकलन और मूल्यांकन के सवाल पर 22 वर्ष तक जीवन साथी रही संगिनी से अलगाव तक हो गया। दोनों एक दूसरे की खबर लेते रहे, मिले कभी नहीं। मतभेद की एकमात्र वजह किसानो की भूमिका को लेकर थी। खैर इस बारे में बाद में कभी। 

मध्यप्रदेश के जुझारू कोयला आंदोलन के बड़े नेता मूर्ती  कुछ साझी कार्यवाहियों में मध्यप्रदेश सीटू के संपर्क में आये। चर्चाएं शुरू हुईं। इन बहसों और संवाद तथा खासतौर से सीटू के राष्ट्रीय सचिव डब्लू आर वरदराजन के प्रयासों के बाद वे इफ्टू की अध्यक्षता छोड़कर पंद्रह साल पहले 2005 की 6 नवम्बर को सीटू में आ गए। वे लंबे समय तक मध्यप्रदेश सीटू के उपाध्यक्ष रहे। सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता की अपनी जोशीली ललक को उन्होंने कभी मंद नहीं पडऩे दिया। बीमारी की हालत में डॉ नल्लम से लड़कर वे बार बार सप्ताह दस दिन के लिए छिंदवाड़ा आते रहे कभी नवम्बर क्रान्ति की वर्षगाँठ  मनाने, कभी सीटू का स्थापना दिवस मनाने तो कभी भगत सिंह  का शहादत दिवस मनाने। 

जनवरी में जब हम तीन दिन उनके साथ रहे थे तब उन्होंने वादा किया था कि इस बार का 23 मार्च बहुत धूम से मनाएंगे। मगर भगत सिंह से बेइंतहा प्यार करने वाले दादा  23 मार्च भगत सिंह की शहादत के दिन ही अपनी अंतिमयात्रा पर निकल गये। उनकी  जन्मभूमि पॉण्डिचेरी में जब उनकी देह का दाहसंस्कार हो रहा था  तब हम सब अपने कमरों में लॉक्डडाउन थे।  हम सबकी तरफ से  सीपीआई(एम) की केंद्रीय समिति की सदस्य सुधा सुंदररमन और पॉन्डिचेरी की सीपीएम के राज्य सचिव राजंगम ने उन्हें लाल झंडा ओढ़ाया।  सीटू की ऑटो यूनियन के साथियों ने उन्हें अंतिम विदा दी। उनकी कर्मभूमि छिंदवाड़ा से उनके 5 साथी पहले से वहां हैं।  

ये पंक्तियाँ कामरेड मूर्ती के विराट व्यक्तित्व की झलक तक नहीं देतीं - उनके साथ उनके विश्वासपात्र कामरेड के रूप में काम करने के अनेक संस्मरण हैं।  किन्तु इससे अधिक लिखना अभी संभव नहीं है। सिवाय इस अंतिम निजी बात के कि हमने अपने जीवन में दो सैकड़ा से ज्यादा यूनियन दफ्तर, सीटू कार्यालय देखें होंगे ; मगर जो समग्र अनुभूति दादा के गुढ़ी अम्बाडा के शहीद भवन घुसने के साथ ही होती थी, वहां के उनके तैयार किये गए कोयला मजदूर कार्यकर्ताओं की ऊष्मा और ऊर्जा को देखकर होती थी वैसी इससे पहले सिर्फ बंगाल के  रानीगंज में कामरेड हराधन राय की अगुआई वाली सीटू की कोयला यूनियन के दफ्तर में रह कर हुई थी।     


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Badal Saroj

लेखक लोकजतन के संपादक एवं अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.

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