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जवानों को पूरी पेंशन क्यों नहीं

देश की सुरक्षा के लिए जान कुर्बान करने वालों के परिवारों के साथ न्याय करना नैतिकता का तकाजा है।

फोटो - गूगल

पुलवामा के आतंकी हमले में चालीस से अधिक जवानों की मौत ने लोगों का दिल दहला दिया है। प्रसार माध्यमों का असर बहुत अजीब होता है। पुलवामा जैसी बड़ी घटना होती है, तो उस पर और उससे जुड़े तमाम पात्रों के साथ लोगों की भावनाओं का जबर्दस्त जुड़ाव हो जाता है। घटना के फौरन बाद के घंटों और दिनों में प्रभावित लोगों और उनके परिवारों के लिए सब कुछ करने की प्रबल इच्छा हरेक हृदय में जागती है। और इस इच्छा का कुछ-कुछ क्रियान्वयन भी होता है। सरकारें परिवारजनों से तमाम वायदे करती हैं। पर कुछ दिन बीतने पर लोगों का ध्यान बंटने लगता है। यह स्वाभाविक भी है। आश्वासन कुछ पूरे किए जाते हैं, कुछ रह जाते हैं। बड़ी घटना के बाद छोटी घटनाओं में भी बहादुर फौजियों की मौतें होती हैं। पर इन छोटी घटनाओं में दिलचस्पी का स्तर भी कुछ छोटा होता है। यह स्वाभाविक तो है, पर न्यायपूर्ण नहीं। देश की सुरक्षा के लिए जान कुर्बान करने वालों के परिवारों के साथ न्याय करना नैतिकता का तकाजा है। जिनको सुरक्षित रखने के लिए ये जानें जाती हैं, उनका काम सिर्फ नारे लगाना, पीडि़त परिवारों की मदद करने की मांग उठाना या आश्वासन देना नहीं हो सकता। उन जवानों के परिवारों के भविष्य के बारे में सोचना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करना होगा।

सोलह फरवरी को मैं पटना जिले के तारेगना गांव में गई थी। इस गांव के संजय कुमार सिन्हा भी पुलवामा हमले में शहीद हुए हैं। उनकी पत्नी पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी थीं। क्या कहें? कैसे सांत्वना दें? शब्द ढूंढे ही नहीं मिलते। तमाम घिसे-पिटे शब्द इस्तेमाल करने लायक नहीं लगते। बस कंधे पर हाथ रखकर, फिर पल भर के लिए गले लगाकर अपनी संवेदना को व्यक्त करने की कोशिश ही संभव होती है। पत्थर की मूर्ति बनी वह महिला अपने दुख के अलावा कितनी चिंताओं से घिरी होगी। अब परिवार में उसका स्तर क्या होगा? कोचिंग में पढऩे वाले उसके बेटे की फीस का इंतजाम होगा या नहीं? दो बेटियों की जीवन यात्रा कैसे तय होगी?

इन सारे सवालों ने तब और अधिक परेशान किया, जब उस गांव के एक पढ़े-लिखे लडक़े ने मुझसे कहा कि सरकार तो बड़ी घोषणाएं करती है, पर सीआरपीएफ और अन्य अर्धसैनिक बल के जवानों, हवलदारों आदि की पेंशन व्यवस्था ठीक क्यों नहीं करती? जिन लोगों की नौकरी जोखिम भरी होती है, उनके लिए तो पेंशन का महत्व कहीं ज्यादा बढ़ जाता है। 2004 से पहले पेंशन का पूरा भार केंद्र सरकार उठाती थी और हर कर्मचारी को (जिनमें अर्धसैनिक बलों के कर्मचारी भी शामिल हैं) उनकी आखिरी तनख्वाह और महंगाई भत्ते का पचास फीसदी पेंशन के रूप में आजीवन और मौत होने पर उसकी पत्नी को आजीवन मिलती थी।

पर 2004 में नई पेंशन योजना लागू कर दी गई। इसके तहत हर कर्मचारी अपने वेतन का दस फीसदी जमा करता है और सरकार भी उतनी ही राशि जमा करती है। यह पैसा सार्वजानिक और निजी कंपनियों में निवेश के तौर पर लगाया जाता है और कर्मचारी की पेंशन-राशि निवेश की कमाई पर आधारित है। बाजार के उतार-चढ़ाव को देखते हुए पेंशन की राशि बहुत कम हो सकती है। नई पेंशन योजना के खिलाफ संघर्षरत कर्मचारियों का कहना है कि कुछ को तो सात-आठ सौ रुपये ही मिल रहे हैं। 2004 के बाद अर्धसैनिक बलों में भर्ती लोग भी नई पेंशन योजना के अंतर्गत ही पेंशन पाएंगे। इस योजना को रद्द कर पुरानी योजना बहाल करने की मांग उठाने का काम हर उस नागरिक को करना चाहिए, जो वास्तव में जान की बाजी लगाकर देश की सुरक्षा करने वालों के प्रति संवेदनशील है।

साभार - अमर उजाला


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सुभाषिणी अली

पूर्व सांसद , भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी ) की पोलिट ब्यूरो की सदस्य है।

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