सभ्यता में निजी-संपत्ति के विकास के बाद समाज पुरुष-सत्तात्मक होता गया। संपत्ति के वारिस के लिए परिवार बनने लगे। आर्थिक गतिविधियां पुरुषों के हाथ जाती गयीं। स्त्री का दर्जा धीरे-धीरे दोयम कर दिया गया। बाद के दौर 'स्त्री' को सुंदरता के प्रतीक और उपभोग की 'वस्तु' में बदलते जाने के रहें। वस्तुकरण की प्रक्रिया में स्त्री के तन-मन, उसकी इच्छाओं-आकांक्षाओं, चाहतों, पसंद-नापसंद की अनदेखी की जाने लगी। उसे लगभग 'बच्चा जनने की मशीन" में तब्दील कर के रख दिया गया।
अठाहरवी सदी में वैज्ञानिक-प्रगति ने जब कई गूढ़ सवालों के वास्तविक जवाब ढूंढ लिए, तब अनेक पुरातन मान्यताएं ध्वस्त होती गयीं। ऐसे में 'आधुनिकता' का विचार सामने आया। स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के जीवन-मूल्यों की वकालत की जाने लगी। धर्म, नस्ल, रंग, लिंग, भाषा-भूषा और भूगोल के आधार पर किये जाने वाले भेदभावों को नकारने की शुरुआत हुई। इसी के नतीजतन नारी-अस्मिता पर चर्चा होने लगी। नारीवादी विचार सामने आते गयें। जो, स्त्री को 'वस्तु', भोग्या या दोयम नागरिक मानने से इंकार करने लगे।
इन सारी हलचलों से कानूनन चाहे स्त्री के हकों में बदलाव आता गया, मगर समाज का मूल नजरिया मर्दवादी ही बना रहा। जो अब तक बना हुआ है। खासकर धर्म-ध्वजा के वाहकों का नजरिया। तमाम धर्मों में स्त्री को अमूमन नरक का दरवाजा ही बताया गया है। देवी कह महिमा-गान के बावजूद यथार्थ में उसे पैरों की जूती ही माना जाता रहा। वहीं सिलसिला अब भी जारी है।
आज भी शासन-प्रशासन की संस्थाओं, खानदान और रीति-रिवाज़ों में पुरुष का ही वर्चस्व है। उसकी आंखों और भाषा में स्त्री के प्रति तिरस्कार ही झलकता है। बाजारवादी दौर मे ंतो स्त्री का 'वस्तु-करण' और तेज ही हुआ है। जाहिर है, इस कारण स्त्री के प्रति आम-सामाजिक विचारों में कुत्सा और हिंसा बड़ी ही है। खास कर कट्टर धार्मिक लोगों में।
ताजा उदाहरण लें। सफूरा जरगर का। दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया की एम.फिल. की यह छात्रा, हाल ही में सांप्रदायिक दुष्प्रचार का शिकार बनी। दिसम्बर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में उठे छात्र-उभार के नेताओं में शामिल इस छात्रा को 10 अप्रैल को, जब कोरोना महामारी के चलते सारा देश घर-कैद में था कुख्यात यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। उस पर खतरनाक अपराधिक मसलन दंगा भड़काने, हथियार रखने, हत्या और हत्या की कोशिश जैसे संगीन आरोप लाद दिये गये हैं। कुछ अन्य युवाओं का भीे इसी कानून तहत धरा गया है। तिहाड़ जेल में हुई चिकित्सा-जांच में सफूरा गर्भवती पायी गयी। 'मां' को देवता का दर्जा देने का दावा करने वाले हिंदूत्व के पैरोकारों ने इससे बाद उसके विरुद्ध हिंसक और तिरस्कारपूर्ण आरोपों और फूहड़ छींटाकशी की झड़ी लगा दी। उसे अविवाहित और उसके गर्भ को 'अवैध' बताने में जोर-शोर से जुट गयें। यूं भी उनका सोच छिछला है। तिस पर जिस भी निचले स्तर तक संभव था, वे उतरें।
नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के देशव्यापी विरोध का एक सशक्त प्रतीक बन कर उभरा था दिल्ली का शाहीन-बाग। सफूरा भी उसका हिस्सा रही थी। तो उस आंदोलन पर फिकरे कसे जाने लगें। उस बहाने तमाम स्त्रियों के मुखालिफ गंदगी फैलाई जाने लगी। जो यह बताने को पर्याप्त है कि कभी इस देश में हिंदू-राज्य स्थापित हो ही गया, तो अल्पसंख्यकों की जो गत बनेगी, उस पर लिहाल चर्चा न करें, मगर आम स्त्रियों के प्रति शासक-वर्ग का दृष्टिकोण किस गदर गंदा रहेगा।
इसी मनोवृत्ति का दूसरा उदाहरण भी हाल ही के दिनों में दिल्ली में ही मिला है। संभ्रांत माने जाने दक्षिणी-दिल्ली के नाबालिग अमीरजादों का एक इंस्टाग्राम समूह चर्चा में आया है। जिसका नाम है - बॉयज लाकर रूम। जिस पर किशोर लड़के, लड़कियों के अश्लील फोटों और बातें साझा करते थें। चर्चा में यह भी आया है कि उनमें से कुछ 'सामूहिक बलात्कार' की योजना पर भी विचार कर रहे थे। हालांकि पुलिसियां जांच में फिलहाल इस बात को नकारा जा रहा है। तब भी समूह के एडमिन को गिरफ्तार कर अन्य सदस्यों से पूछताछ की गयी है।
यह तो स्पष्ट है कि स्त्री-विरोधी फूहड़ मानसिकता को वहां पोसा जा रहा था। चरित्र के झंडाबरदार इस मामले में चुप्पी साधे बैठे हैं कि उनमें से अधिकतर किशोर उन्हीं के 'धर्म' के हैं। किसी और 'धर्म' के रहते तो ये ही बांकुरे सामाजिक पतन को लेकर आकाश-पाताल एक कर देतें।
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