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औरत, सुलोचना और पद्मावती

औरत के मन की गहराइयां इस पितृसत्तात्मक समाज के लिये हमेशा से बेहद अबूझ रही हैं। इस समाज ने ओैरत केा हमेशा अपनी उसी  सोच के साथ ही देखने केी कोशिश की है।

 

संध्या शैली 
औरत के मन की गहराइयां इस पितृसत्तात्मक समाज के लिये हमेशा से बेहद अबूझ रही हैं। इस समाज ने ओैरत केा हमेशा अपनी उसी  सोच के साथ ही देखने केी कोशिश की है। महिला की एक इंसान की तरह से जीने की इ'छा को कभी भी सकारात्मक तरीके से नहीं देखा बल्कि उसे उन रिश्तों के पैमाने से नापने की तौलने की और उसकी समीक्षा करने की कोशिश की है जो रिश्ते औरत ताउम्र बिना किसी शिकायत के निभाती है और अपने आप को खो देती है।

बहुत पहले शुभा का लिखा हुआ एक निबंध पढ़ा था उसके हिस्से का समय। इस लेख में शुभा ने बहुत बारीकी से एक लड़की के अहसासों और उसके खो गये समय को शब्दों में बांधा था। शुभा लिखती हैं कि एक लड़की बड़े होकर जब अपने भाई को उसके बचपन की मस्तियों पेड़ पर चढऩे, पत्थर मार कर आम,आंवले तोडऩे, पिताजी की साइकल चुरा कर भागने, गांव के तालाब में कूद कर अपने दोस्तों के साथ मस्ती करने और स्कूल से भाग कर जंगलों में मटर गश्ती करने की कहानियां सुनाते हुये देखती है तो सोचती है कि यह समय तो उसके भी बचपन का समय था जब वह यह सब कर सकती थी लेकिन जब भाई यह सब कर रहा था तो काम करने बाहर गये मां बाप को सहारा देने के लिये वह या तो छोटे भाई को सम्हाल रही थी या बाहर मस्ती करते भाई के कपड़े धो रही थी या फिर उन सबके लिये खाना बना रही थी।

इस समाज ने उसके इस खोये हुये समय की कभी परवाह नहीं की बल्कि अब तो वह शासन की शह और अंतर्राष्ट्रीय पूंजी का सहारा पाकर औरत के हिस्से के बचे खुचे समय और जिंदगी को भी हिंसा का डर दिखा कर घर में कैद करना चाहता है और घर की इज्जत का डर दिखा कर घर के भीतर भी चुप करना चाहता है। लेकिन औरतों की लडऩे की ताकत जबरदस्त है वे इन सबके खिलाफ संघर्ष कर रही हैं अपनी बहनों को और इस पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था को खत्म करने के लक्ष्य के साथ काम कर रहे पुरूष साथियों को अपने साथ ला रही है।

कुछ इसी तरह का विमर्ष भोपाल में हुये सबका देश हमारा देश के एक भव्य कार्यक्रम में आयोजित एक परिचर्चा में वक्ताओं ने किया। भारतीय समाज में एक साथ कई ताकतें औरत के पक्ष में ओर विपक्ष में अपनी अपनी लामबंदी के साथ काम कर रही हैं। इस संदर्भ में तुम्हारी सुलू की तायिका सुलोचना का जिक्र करना लाजमी होगा कि इस फिल्म के निर्देषक ने बेहद खूबी के साथ एक औरत के मन की इ'छाओं और खुले आकाश में उडऩे की आकांक्षाओं को दिखाया है।

हिंदुस्तानी मध्यमवर्गीय परिवारों के किसी व्यक्ति की सफलता के मापदंडों का मखौल उड़ाते हुये और पति-पत्नी के बीच के रिश्ते को पारंपरिक सामंती और पितृसत्तात्मक परिभाषा से बाहर लाते हुये भी इस फिल्म में बेहद हल्के फुल्के लेकिन प्रभावशाली तरीके से दिखाया गया है। फिल्म में रात को टेक्सी चलाने वाली महिला टेक्सी ड्रायवर और उसका एक वाक्य कि पाकिस्तानी गाने बहुत सुंदर होते हैं लेकिन मैं इसलिये उन्हे नहीं चलाती कि आजकल किसी भी बात पर लोग पत्थर फेंकने लगते हैं

आज के भारतीय समाज पर छाई सांप्रदायिक और कट्टरपंथी सोच का एक महिला के माध्यम से उड़ाया गया करारा मजाक है। लेकिन इसी संदर्भ में पद्मावती पर चल रहे विवाद को भी यदि देखा जाये तो इस समाज के घिनौना पाखंड की जिनती भत्र्सना की जाये उतनी कम लगती है।

एक ओर तुम्हारी सुलू की नायिका आज के समाज की भारतीय महिला का प्रतिनिधित्व करती है दूसरी ओर यह पाखंडी समाज पद्मावती को भारतीय महिला का आदर्श बताता है। उसे राष्ट्रमाता तक भाजपा के राजनेता घोषित कर देते हैं । लेकिन उससे भी अधिक आश्चर्यजनक और घिनौनी सचाई यह है कि पद्मावती की भूमिका करने वाली आज के भारतीय सिनेमा की सशक्त अभिनेत्रियों में से एक दीपिका पादुकोण का सर काटने का तो फतवा गर्व के साथ हिंदू युवा हदय सम्राट जारी करते हैं लेकिन खिलजी की भूमिका अदा करने वाले रणवीर के खिलाफ कोई एक शब्द भी नहीं बोलता।

समाज की सांप्रदायिक सोच भी पितृसत्तात्मकता के साथ किस तरह से जुड़ी है यह भी पद्मावती पर चल रहा विवाद साबित करता है और धार्मिक कट्टरता से भरा समाज कभी भी महिलाओं के पक्ष में नहीं हो सकता यह दुर्गा वाहिनी, शक्ति वाहिनी, राष्ट्र सेविका समिति से जुड़ी महिलाओं और युवतियों का भ्रम दूर होना भी जरूरी है। 

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