सुभाषिनी सहगल अली
हिमाचल प्रदेश में चुनाव, गुजरात में चुनाव, उत्तर प्रदेश में चुनाव, चुनाव की बड़ी हलचल है। नारे गूँज रहे हैं, पर्चे, पोस्टर की जंग छिड़ी है, वायदों और आरोप-प्रतिआरोप के हंगामे में, आम लोगों, गऱीबों, महिलाओं और बच्चों के जीवन से जुड़े मुद्दों की बातें करने की कोशिश वामपंथी कर रहे हैं। शोरगुल में कहीं कहीं सुनाई भी दे रहे हैं।
नोटबंदी से पैदा हुई बेरोजगारी, बदहाली और परेशानी, उसके कारण हुई करीब 200 गरीब लोगों की मौतों की बात ठीक एक साल के बाद सुनाई देने लगी हैं। नोटबंदी से मची तबाही का हल्ला भी होने लगा है।
लेकिन इस देश में व्याप्त भूख की बात अभी कम हो रही है। अक्सर भूख की जिम्मेदारी भाग्य या भाग्याविध्हता पर डाल दी जाती है। लेकिन ऐसा करना हमारे देश में भाग्य और भाग्यविधाता के साथ अन्याय है। हमारे देश में अनाज की कमी नहीं है, अगर अनाज भूखे पेटो तक पहुँच नहीं रहा है तो उसकी जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ सरकार की है।
भारत भूखा देश है, भारत कुपोषण से ग्रसित देश है, उसकी जनता को भूखा और कुपोषित रखने का काम सरकारी नीतियां कर रही हैं। सरकार की सोच ज्यादा से ज्यादा लोगों को सस्ता राशन उपलब्ध कराने का नहीं बल्कि उस सस्ते राशन से जो उसके गोदामों में सड रहा है, उससे वंचित रखने का है। इसके कई तरीके सरकारों ने ढूँढ़ निकाले हैं। राशन कार्ड न देना, गरीबी की ऐसी परिभाषा करना कि गरीब उसके बाहर ही चला जाए, राशन के बदले बैंक के खाते में पैसा जमा करने का वायदा करना और, जो सबसे घातक साबित हुआ है, खाते और राशन कार्ड दोनों को ही आधार कार्ड के साथ जोड़ देना।
आधार कार्ड की अनिवार्यता का विरोध निजिता की सुरक्षा के सवाल को लेकर हो रहा है लेकिन इस अनिवार्यता का गरीब परिवारों पर क्या असर पड़ रहा है, उसकी कम चर्चा है। इस चर्चा को चीख-चीखकर करने की जरूरत है। चुनावों में इसे केन्द्रीय मुद्दा बनाने की जरुरत है, सरकार को गरीबों को भूखा मारने वाला अपराधी के रूप में जनता के सामने प्रस्तुत करने की जरुरत है।
संतोषी की मौत को मुद्दा बनाने की जरूरत है।
संतोषी झारखंड के सिमडेगा जिले के एक गरीब परिवार की 11 साल की बच्ची थी। उसके परिवार के पास गरीबी रेखा का राशन कार्ड भी था और आधार कार्ड भी। उनको पिछले साल के अंत तक राशन भी मिल रहा था। फिर अचानक, झारखण्ड की सरकार ने नया नियम लागू कर दिया कि राशन कार्ड को आधार कार्ड के साथ जोड़कर नई श्रंखला तैयार की जायेगी। उस नई लिस्ट से संतोषी के परिवार का नाम कट गया। जब उसकी मां राशन की दुकान पर गयी तो उसको इसका पता चला। उसके बाद वह फिर नहीं गयी।
उसकी माँ और बड़ी बहिन जंगल से लकड़ी बीनकर बेचते हैं, 40 रुपए दिन में कमा लेते हैं। कभी कभी दूर जाकर मजदूरी मिल जाती है और 150 रुपए की दहाड़ी मिल जाती है। उनके पास बार बार 5-6 किलोमीटर दूर की राशन की दूकान पर जाकर या किसी सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाने का समय ही नहीं है।
मजदूरी की राशि बाजार में अनाज के बढ़ते दामों का मुकाबला नहीं कर पायी और 28 सितम्बर को संतोषी भूख से मर ही गयी। उसकी माँ का कहना है कि वह ''भात भातÓÓ कहते हुए मरी। पता यह चला है कि झारखंड की सरकार, गैर-वाम की अन्य सरकारों की तरह, पूरा जोर इस बात पर लगा रही है कि राशन पाने वालों की संख्या कम हो ना कि ज्यादा से ज्यादा गरीब परिवारों को जिंदा रहने के लिए राशन उपलब्ध कराया जाए। इसका एक ही नतीजा होने वाला है - भारत में भूख से मरने वाले बच्चों की संख्या बढऩे वाली है।
आज से 100 साल पहले, इन्हीं दिनों में, रूस के बड़े शहरों - मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग - वहां की मजदूर परिवारों और गरीब घरों की हजारों महिलाओं ने 'रोटीÓ की मांग को लेकर घरों से निकलकर सड़कों पर जार के सैनिकों की गोलियों का सामना किया था।
भूखा रहना और अपने बच्चों को भूखा सुलाना - यह उनको सदियों की भूख बर्दाश्त करने के बाद स्वीकार नहीं था। उन्होंने मजदूरों को भी ललकारा और क्रांतिकारी ताकतों में अपनी बहादुरी से जबरदस्त ऊर्जा भरने का काम किया। दुनिया की पहली क्रान्ति की फौज की अगली कतारों में थी वह भूख से लडऩे वाली महिलाएं।
संतोषी 'भात-भातÓ कहती कहती दम तोड़ गयी। वह तो मर गयी लेकिन भूख हमारे देश में जिंदा है। जिंदा ही नहीं फल फूल रही है। इस भूख को मिटाने की लड़ाई हमारे देश में होना जरूरी है। वोट के माध्यम से भी और सड़कों पर उतर कर भी।
साभार - अमर उजाला
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