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सड़ी गली समाज व्यवस्था और उसके खंबे

संध्या शैली    भोपाल के सामूहिक बलात्कार कांड ने दिल्ली की उस जघन्य घृणित घटना की याद, एक बार फिर ताजा कर दी। इस देश में सिर्फ याददाश्त के सहारे इस तरह की घटनाओं की एक लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती...

संध्या शैली 
 
भोपाल के सामूहिक बलात्कार कांड ने दिल्ली की उस जघन्य घृणित घटना की याद, एक बार फिर ताजा कर दी। इस देश में सिर्फ याददाश्त के सहारे इस तरह की घटनाओं की एक लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है। लखनऊ का आशियाना कांड, बोकारो का सामूहिक बलात्कार आदि आदि। यह कभी खत्म न होने वाली सूची लगती है और आने वाले दिनों में हम और भी भयानक घटनाओं का अनुभव करेंगे ऐसा लगता है।
 
बंद घरों में और जिन परिवारों ने इस घटना की भयावहता का अनुभव नहीं किया है, उन परिवारों को ये घटनायें जानबूझ कर तिल का ताड़ बनाने वाली लगती हैं। तो कभी उन्हें यह लगता है कि इन घटनाओं को अब मीडिया दिखाने लगा है, ये पहले भी होती थीं। कुछ इसके लिये पीडि़त महिलाओं को ही जिम्मेदार मानने लगते हैं। पुलिस और न्याय दिलाने वाली संस्थाओं की तो मान्यता ही पीडि़त के खिलाफ होती है। दिल्ली की घटना के बाद तमाम महिला संगठनों और जनसंगठनों के दबाव के साथ साथ देश भर में उभरे आंदोलन के कारण बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने अनुशंसायें दी थीं और अपनी रिपोर्ट को तय समय सीमा के भीतर ही देश की जनता के लिये जारी करते हुए जस्टिस वर्मा, जस्टिस सेठ  की कमेटी ने जो बातें कहीं थीं वे दरअसल इस तथाकथित सभ्य समाज की असलियत को सामने लाने वालीं थीं।
 
ऐसा लग रहा है कि समाज आज भी उसी स्थान पर खड़ा हुआ है । आज भी जस्टिस वर्मा की कही हुई वे बातें हमारे दिमागों में घूम रहीं हैं लेकिन जिन्हें उन बातों पर गौर करके अपने आप को अपनी मानसिकता को और कार्यप्रणाली को बदलना चाहिये वह पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका इन सबको सुनने तक के लिये तैयार नहीं है। जस्टिस वर्मा कमेटी ने साफ तौर पर बलात्कार शब्द की परिभाषा को विस्तार दिया था लेकिन यह भी स्पष्ट किया था कि पितृसत्तात्मक मानसिकता के रहते हुए किसी भी सुधार की हम अपेक्षा नहीं करते। हिंदुस्तान के इतिहास में इक्का-दुक्का ही सक्रिय,समय पर रिपोर्ट देने वाली और संवेदनशील कमेटियां बनीं हैं जिनमें से एक यह कमेटी थी।
 
भोपाल की घटना ने फिर से इसे सही साबित कर दिया है। पुलिस अफसर की बेटी के साथ ही जब पुलिस इतना असंवेदशील रवैया अख्तियार कर सकती है, तो आम जनता की बेटियों की सुरक्षा की तो सोचा ही नहीं जा सकता है। रही सही कमी उस डॉक्टर की मेडिकल रिपोर्ट ने पूरी कर दी थी जिसे न तो अंग्रेजी का ज्ञान था न ही एक भयानक घटना से गुजरी पीडि़ता के प्रति मानवीय संवेदना।
 
इक्कीसवीं सदी के समाज में महिलाओं को अठारहवीं सदी में रहने को मजबूर करने वाले लोग तो बहुत हैं, लेकिन आज शासन और प्रशासन का भी समर्थन उन्हें मिल रहा है। अभी हाल में वसुंधरा राजे की राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग ने एक आदेश निकाला कि योग के स्थान पर महिलाओं को घरों में झाडू पोंछा लगाना चाहिये और चक्की पीसना चाहिये। इधर भोपाल के राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालय के डायरेक्टर और कई शिक्षक अपने संस्थान की छात्राओं और उनके कपड़ों  के प्रति अश्लील टिप्पणियां करते हैं।
 
हम अभी भी किस तरह के समाज में रह रहे हैं यह सवाल अक्सर लोगों के दिमागों मे कौंधता रहता है। लेकिन यह एक सचाई है कि पूंजीवादी व्यवस्था जिन चार सड़े गले खंबों पर खड़ी हुई दिखती है वे हैं व्यवस्था का चाटुकार और बिका हुआ मीडिया, और अत्यंत भ्रष्ट प्रशासन, न्याय प्रणाली, पुलिस। आश्चर्य है कि इन सड़े गले खंबों पर यह व्यवस्था टिकी कैसी है?  लेकिन एक अदृश्य खंबा इन सबके बीच में है और वह है पूंजीपतियों की पूंजी का जो जनता सहित सबको नियंत्रित करता रहता है। इस खंबे को पहचान कर उस पर वार करने वाला और जनता को उसके प्रभाव से बाहर लाने वाला जनांदोलन की जरूरत है। जो इन सड़े गले खंबों सहित इस व्यवस्था को ढहा सकता है। 

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