हिंदुस्तान की आज़ादी के आंदोलन के सबसे बड़े नेताओं में से एक डाॅ बाबासाहेब अम्बेडकर की बडी विषेषता को पीछे कर उन्हे केवल दलितों के नेता के तौर पर स्थापित करना वर्तमान सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था की एक बड़ी साजिश थी।
बाबासाहेब की राजनैतिक और सामाजिक यात्रा की तुलना केवल महात्मा गांधी से की जा सकती है जिन्होने राजनैतिक प्रश्नो के साथ साथ सामाजिक प्रश्नो को भी अपने लेखों, भाषणों, पुस्तकों में किया। भगतसिंह जरूर अपनी विचारधारा के बल पर उनके कद से प्रतियोगिता कर सकते थे लेकिन 23 साल की उम्र में हो गयी उनकी शहादत ने उन्हे ज्यादा समय नहीं दिया।
बाबासाहेब देश के सामाजिक ताने बाने को समझने वाले और उत्पीड़ितों की मुक्ति के लिये संघर्ष करने वाले सबसे बड़े नेता के तौर पर उभरे थे। तभी भारत की जनता ने यदि गांधी को महात्मा कहा तो अंबेडकर को महामानव।
उनके द्वारा दिया गया नारा उनके पूरे व्यक्तित्व कृतित्व और लक्ष्य को दिखाता है - अध्ययन करो, संगठित हो और संघर्ष करो। वर्गीय और जातीय आधारों पर बंटे समाज में शोषितों को जगाने वाला और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने के लिये प्रेरित करने वाला इससे बड़ा नारा देश में नहीं है। शोषित कोई भी हो सकता है फिर वह सामाजिक रूप से दलित और अस्पृश्य हो,आर्थिक रूप से दलित मजदूर हो या फिर दोनों ही रूपों में दलित स्थिति को प्राप्त महिला हो। भारतीय समाज में उपस्थित इन तीनों ही प्रकार के शोषितों के लिये उन्होने अपनी हर हैसियत में न केवल संघर्ष किया बल्कि उन्हे अधिकार भी दिये।
1942 से 1946 के बीच वाइसराय कौंसिल के सदस्य रहने के दौरान उन्होने न केवल हिंदुस्तान के श्रमिकों के लिये सबसे पहले 8 घंटे काम का कानून बनवाने में सबसे अहम भूमिका निभाई। बल्कि महिला श्रमिकों के हितों के लिये भी कई कानून बनाये जो बाद में आज़ादी के बाद बने श्रमिकों के लिये बनाये गये कानूनों के लिये आधार बने। महिलाओं के लिये समान काम के लिये समान वेतन का कानून इस देश में बाबासाहेब की देन है। जो अमरीकी महिलाओ को आज भी प्राप्त नहीं है।
भारतीय रिज़र्व बैंक की परिकल्पना भी बाबा साहेब अंबेडकर की ही थी। जिसने दुनियां भर में आई मंदियों के दौर में भारतीय नागरिकों के पैसे और देश की अर्थव्यवस्था की रक्षा की।
लेकिन उनका सबसे अधिक योगदान इस देश की महिलाओं के अधिकारों के लिये उनका संघर्ष था। भारत के इस पहले कानून मंत्री ने महिलाओं के हक़ों के प्रति अपने समर्पण की वजह से अपने पद से इस्तीफा दे दिया था जब लोक सभा में हिंदू कोड बिल के खिलाफ तमाम जनसंघी और तत्कालीन राष्ट्रपति सहित तथाकथित प्रगतिशील कांग्रेस के नेता भी खडे हो गये। यहां यह बात ध्यान देने की है कि इस बिल के सदन में पेश करने के पूर्व संविधान सभा ने देश में नागरिकों के बीच धर्म,जाति व लिंग के आधार पर भेदभाव न करने की संविधान की मूल प्रस्तावना को स्वीकार कर लिया था। इसके बावजूद महिलाओं के अधिकारों को देने वाले इस विधेयक का कड़ा विरोध और इसके खिलाफ जनसंघ के द्वारा कमेटी का गठन भी संघ के द्वारा कर लिया गया था। इस पर कड़ा आक्षेप लेते हुये डा अंबेडकर ने 1951 में कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। बाद में उनके इस बिल के सभी पक्षों को नेहरू सरकार ने अलग अलग कानून बनाकर इसे लागू कर दिया। इसमें उन्हें 10 साल लग गए।
अम्बेडकर के प्रति इस देश की महिलाओं को इसलिये भी ऋणी रहना चाहिये कि उन्होेने आज़ादी के बाद महिलाओं को कानूनन कई अधिकार दिये इनमें सबसे प्रमुख था वोट देने का अधिकार। दुनियां भर में सोवियत संघ और चीन के अलावा उस वक्त बहुत कम देश ऐसे थे जिनमें आजादी के साथ महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला।
अंबेडकर का दृढ मानना था कि इस देश को एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक चेतना से संपन्न देश बनाने में मनुवाद सबसे बडा अडंगा है। मनुवादी परंपराये संघर्ष से भी खत्म होंगी लेकिन जहां पर भी मौका मिले वहां पर शोषितों को कानूनन अधिकार देने से भी ये परंपरायें कमजोर होंगी। उनका यह भी मानना था कि इन परंपाराओं की सबसे बड़ी वाहक महिलायें हैं जो खुद इसकी बेड़ियों भी जकड़ी हुयी हैं। इसलिये वे महिलाओं की शिक्षा के सबसे बडे झंडाबरदार थे। कोलंबिया युनिवर्सिटी में उनके एक शोध पत्र का आधार भी यही था।
डा अंबेडकर ने केवल अपने बोलने और लिखने में ही महिलाओं के हकों की बात नहीं की बल्कि उनके हर आंदोलन में महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सेदारी की। 20 जुलाई 1940 को नागपुर में अखिल भारतीय शोषित पीड़ित महिलाओं के सम्मेलन को संबोधित करते हुये उन्होने महिलाओं के संगठन के महत्व पर बहुत जोर दिया। उनके नेतृत्व में हुये कई आंदोलनों में न केवल दलित ओर आदिवासी महिलाओं ने बल्कि सवर्ण महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में हिस्सेदारी की।
डा अंबेडकर का स्पष्ट मानना था कि आंज़ादी के बाद भारतीय संमाज जाति आधारित गैरबराबरी वाला समाज नहीं होना चाहिये।इसलिये उन्होने शिक्षा ,अंर्तजातीय विवाह और सामूहिक भोज के तरीके अपनाने पर जोर दिया जिससे पितृसत्ता और मनुवादी परंपराओं की जकड़न टूटती। महाड सत्याग्रह के बाद उन्होने मनुस्मृति का दहन किया था जिसमें करीब 50 महिलाओं ने भाग लिया था।
डा आंबेडकर ने भारतीय संविधान को सदन में प्रस्तुत करते समय यह कहा था कि आज के बाद से हम एक अंर्तविरोधों से भरे समाज में प्रवेश कर रहे हैं जहां पर हमने राजनैतिक रूप से सभी नागरिकों को समानता दी है लेकिन आज भी हमारा समाज ,लैंगिक,सामाजिक,धार्मिक रूप से भयानक गैरबराबरियों पर टिका हुआ है। ये गैरबराबरियां जब तक जिंदा रहेंगी तब तक इय राजनैतिक बराबरी का अस्तित्व भी खतरे में पड़ा रहेगा। इसलिये देश के संविधान की मूल आत्मा यानि देश के हर नागरिक के समान अधिकार की भावना की रक्षा करना है तो जितनी जल्दी इन गैरबराबरियों से छुटकारा मिले उतना अच्छा होगा।
डा अंबेडकर का यह कथन आज भी उतना ही सच है जितना 1950 में था।
© 2017 - ictsoft.in
Leave a Comment