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सर्वोच्च न्यायालय का आदेश : कानून का कंधा और मनुवादी बंदूक

प्रश्न यह है कि अक्सर भाजपा सरकार के समय ही ऐसे आदेश क्यों आते हैं? इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय 30 मई 2002 को आदेश जारी कर आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश जारी किया था। 

फोटो - बीबीसी

भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार का आदिवासी विरोधी चेहरा एक बार फिर बेनकाब हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी कर 23 लाख 30 हजार आदिवासियों और वनवासियों को जुलाई तक वनभूमि से बेदखल करने का आदेश राज्य सरकारों को दिया है। यह संख्या इससे भी अधिक हो सकती है। मगर अभी प्रश्न यह है कि अक्सर भाजपा सरकार के समय ही ऐसे आदेश क्यों आते हैं? इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय 30 मई 2002 को आदेश जारी कर आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश जारी किया था। 

इस आदेश के खिलाफ आदिवासियों और वनवासियों ने लड़ाई लड़ी और 2004 में राजग की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। वामपंथ के समर्थन से सत्ता में आई संप्रग सरकार ने वनाधिकार कानून 2006 पारित कर 13 दिसंबर 2008 तक वनभूमि पर काबिज आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि का मालिकाना हक देने का कानून बनाया। आजादी के बाद से आदिवासियों और वनवासियों के हित में पारित होने वाला यह सबसे महत्वपूर्ण कानून था।

मगर सरकारों के आदिवासी विरोधी रवैये के चलते एक दशक के बाद भी अमल बाकी है। भाजपा तो हमेशा से अपने मनुवादी एजेंडे पर चल रही है। 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद फिर मनुवादी एजेंडे को पूरी नंगई के साथ लागू किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला कोई अकेला फैसला नहीं है। अनुसूचित जाति/ जनजाति उत्पीडऩ निरोधक कानून को भी निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने वह फैसला इसलिए दिया था, क्योंकि नरेन्द्र मोदी की सरकार सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून के पक्ष में तर्कों के साथ प्रभावशाली तथ्य प्रस्तुत नहीं कर पाई थी।  

वनाधिकार कानून के मामले में तो नरेन्द्र मोदी सरकार ने बेशर्मी की सारी हदें ही लांघ दी हैं। इस मामले की महत्वपूर्ण सुनवाई के अवसर पर सरकार की ओर से कोई वकील अदालत में पेश ही नहीं हुआ। सरकार की गैर हाजिरी में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है। सरकार के आदिवासी-वनवासी विरोधी आचरण से साफ है कि सरकार खुद चाहती थी कि सर्वोच्च न्यायालय ऐसा ही निर्णय दे। 

बात सिर्फ वकील के अदालत में हाजिर न होने की ही नहीं है। मोदी सरकार के आदिवासी विरोधी दृष्टिकोण को समग्रता से देखने की जरूरत है। वनाधिकार कानून के अमल की बात करें तो आदिवासी कल्याण मंत्रालय ही इसके अमल के मामले में नोडल एजेंसी है। इसलिए अदालती कार्यवाही में भी उसे ही अपना पक्ष रखने की अनुमति मिलना चाहिए थी। मगर मोदी सरकार ने इसका जिम्मा वन और पर्यावरण मंत्रालय को सौंपा। आदिवासी अधिकारों और वनाधिकार कानून के संबंध में थोड़ी सी जानकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि यही मंत्रालय तो इस कानून के अमल में सबसे बड़ी बाधा है। इस मंत्रालय ने शुरूआत से ही वनाधिकार कानून को चुनौती दी है। आदिवासी और वनवासी इसी मंत्रालय के उत्पीडऩ का शिकार होते हैं। अब उत्पीडक़ से न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है? गांव की भाषा में इसे चने के खलिहान की रखवाली बकरे को सौंपना कहते हैं। 

वैसे भी पिछले पांच सालों में मोदी सरकार लगातार वनाधिकार कानून को कमजोर करने का प्रयत्न करती रही है। कभी खदान कानून के जरिए और कभी वन और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा समय समय पर जारी अध्यादेशों के माध्यम से। मोदी सरकार की मंशा आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदखल कर उनकी रोजी रोटी छीनने की है। वह प्राकृतिक संपदा- जल, जंगल और जमीन ही नहीं बल्कि उस भूमि के नीचे छिपे प्राकृतिक संसाधनों को भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना चाहती है। यही वजह है कि इस सरकार के सत्ता में आते ही भूमि अधिग्रहण कानून 2013 को हटाने की तीन बार कोशिश की। देशव्यापी प्रतिरोध के बाद मोदी सरकार को अपने पांव पीछे खींचने पड़े। मगर अब भाजपा की राज्य सरकारें वहीं कर रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के यह फैसला अंतॢवरोधों से भरा हुआ है। वह संविधानसंमत भी नहीं है। मगर सरकार जानती है कि इस फैसले का सबसे अधिक नुकसान किसको होने वाला है। सरकार के अपने रिकार्ड के अनुसार ही 31 दिसंबर 2018 तक 42.19 लाख आदिवासियों और वनवासियों ने वनभूमि के लिए दावे प्रस्तुत किये थे। इनमें से 18.89 के दावे ही स्वीकार किए गये और 23.30 लाख के दावे निरस्त कर दिए गए। वनवासियों के साथ तो पूरी तरह अन्याय हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 6,84,485 दावों में से 4,44,493 को निरस्त कर दिया गया है। मतलब यह कि 64.93 प्रतिशत दावों को निरस्त कर दिया गया है। 

 अब इसे यदि राज्य वार देखा जाये तो त्रिपुरा की पूर्व की माणिक सरकार के नेतृत्व वाली वाममोर्चा सरकार ने ही सारे दावेदारों को वनभूमि का पट्टा देकर मालिकाना हक दिया है। केरल की वामपंथी जनवादी मोर्चे की सरकार ने भी 98 प्रतिशत दावों का निराकरण कर उन्हें वनभूमि का पट्टा दिया है। वहां वनभूमि के लिए किए गए 39999 दावों में से केवल 894 को ही निरस्त किया गया है।

भाजपा का मनुवादी और आदिवासी विरोधी चेहरा भाजपा की राज्य सरकारों के कामकाज से दिखाई देता है। वनाधिकार कानून के अमल के मामले में यह सरकारें सबसे पीछे हैं। भाजपा राज्य सरकारें तो आदिवासियों को वनभूमि से बेदखल कर उक्त भूमि भूमाफियाओं और कारपोरेट कंपनियों को सौंप रही है। मध्यप्रदेश में वनाधिकार के लिए आदिवासियों के 4,26,105 दावे प्रस्तुत किए गए, इनमें से 2,04,123 दावे निरस्त कर दिये गए। यानि कि 47.90 प्रतिशत दावेदारों के दावों को खारिज कर दिया गया। वनवासियों के दावों पर तो गौर करना भी उचित नहीं समझा। मध्यप्रदेश में 1,53,306 दावों में से 1,50,664 दावों को निरस्त कर दिया गया। केवल 2642 दावेदारों को ही पट्टे दिये गए। सरकार ने 98.27 प्रतिशत दावों को निरस्त कर दिया है।

ओडि़सा में आदिवासियों के 5,73,867 दावे आये और सरकार ने इनमें से 1,22,250 को निरस्त कर दिया। निरस्त किए गए दावे कुल दावों का 21.30 प्रतिशत हैं। इस राज्य में भी वनवासियों की ओर से 31,687 दावे किए गए और इनमें उे 26,620 दावों को निरस्त कर दिया गया। निरस्त किए गए दावे कुल दावों का 84 प्रतिशत हैं। 

तेलंगाना में आदिवासियों ने वनभूमि के 1,83,252 दावे प्रस्तुत किए। इनमें से 82,075 को निरस्त कर दिया गया, जो कि कुल दावों को 44.78 फीसद है। लगभग हर राज्य की यही हालत है। 

कुल मिलाकर मोदी सरकार भले ही पाकिस्तान पर हमले की बात करती हो, मगर सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद मोदी सरकार आदिवासियों के खिलाफ युद्व जैसी आपात ङ्क्षस्थति पैदा कर रही है। क्योंकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार भलें ही 23.90 आदिवासी परिवारों को वनभूमि से बेदखल करने की बात हो रही हो, वास्तव में तो यह आंकड़ा उससे कहीं ज्यादा है। अधिकांश परियोजनायें आदिवासी क्षेत्रों में ही आ रही हैं। अनुभव यह बताता है कि इन क्षेत्रों के आदिवासियों और वनवासियों ने यदि वनभूमि का दावा प्रस्तुत किया है तो उसे निरस्त करना तो दूर प्राप्त ही नहीं किया गया है ताकि उस परियोजना की मालिकों को आदिवासियों और वनवासियों को मुआवजा न देना पड़े। इसी तरह राष्ट्रीय पार्क, अभ्यारणों में रहने वाले आदिवासियों और वनवासियों के दावे भी प्राप्त नहीं किए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय का आदेश वनाधिकार कानून की आत्मा का ही उल्लंघन है। इस कानून की धारा 4 (5) के अनुसार यदि आदिवासियों और वनवासियों को उनकी भूमि से हटाया जाता है तो वह भी उचित और सम्मानजनक तरीके से होगा। मगर यह आदेश तो तुगलकी फरमान की तरह है कि आदिवासियों को हर हालत में जुलाई में अगली सुनवाई से पहले बेदखल कर दिया जाये। 

सर्वोच्च न्यायालय तो तर्कों और तथ्यों के आधार पर निर्णय लेता है। सारी निचली अदालतों से होकर ही कोई मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय पहुंचता है। वनाधिकार कानून के बारे में भी यही है। ग्रामसभा के बाद ग्राम समितियां निर्णय लेती हैं कि दावेदार का दावा सही है या नहीं। यदि ग्राम समिति दावे को निरस्त कर कर देती है तो फिर ब्लॉक समिति में अपील का प्रावधान है। जब तक ब्लॉक समिति निर्णय नहीं करती है, किसी भी आदिवासी या वनवासी को बेदखल नहीं किया जा सकता है। ब्लॉक समिति से अपील खारिज हो जाने के बाद जिला समिति में अपील करने का प्रावधान है। वहां से भी खारिज हो जाने के बाद राज्य समिति में अपील की जा सकती है। और तब तक उन्हें भूमि से हटाया नहीं जा सकता है। 

वनाधिकार कानून के अमल की स्थिति यह है कि जिनके दावे ग्राम समितियों ने खारिज कर दिए हैं, उन्हें यह जानकारी ही नहीं दी गई है कि उनके दावे खारिज हो गए हैं। जानकारी मिलने के बाद उन्हें तीन चरणों में अपील करने का अधिकार है। और जब तक सारे अपीलीय निकाय उसकी दावे को खारिज नहीं करते हैं, तब तक उसे हटाना गैर कानूनी होगा। 

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय तो संविधान को भी चुनौती देता है। वनक्षेत्र का 60 प्रतिशत क्षेत्र आदिवासी क्षेत्र है। जो संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची में आता है। वहां निर्णय लेने का अधिकार तो सिर्फ ग्राम पंचायत को है। केन्द्र और राज्य सरकारें भी ग्राम पंचायत की अनुमति के बिना अपनी परियोजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती हैं। तब राज्य सरकारें कैसे इस भूमि पर काबिज आदिवासियों और वनवासियों को बेदखल कर सकती हैं। जबकि संविधान ने उन्हें स्वायतता दी है कि अपने विकास और संस्कृति व प्रकृति की रक्षा के लिए वे स्वयं निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। 

संकट यह है कि जिन्हें संविधान और जन अधिकारों की रक्षा करना है, उन्हें ही संविधान समझाना पड़ रहा है। संविधान की धारा 19 (5) आदिवासियों के अधिकारों की बात करती है। मगर सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश आदिवासियों और वनवासियों का पक्ष जाने  बगैर ही उन्हें बेदखल करने के आदेश दे रहा है। 

इस सबके खिलाफ लड़ाई लडऩी होगी। एकजुट होकर यदि वनाधिकार कानून बनाया जा सकता है तो उसकी रक्षा भी की जा सकती है। मगर यह समझना होगा कि केन्द्र की मोदी सरकार अपने आदिवासी विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर बंदूक रख कर आदिवासियों और दलितों पर निशाना साध रही है। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बहाने तो मोदी सरकार ने आदिवासियों और वनवासियों के खिलाफ युद्ध की घोषणा ही कर दी है। अब हमें यह युद्ध लडऩा होगा और भाजपा को हराकर सबक सिखाना होगा। 


About Author

जसविंदर सिंह

राज्य सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) मध्यप्रदेश

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