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गौरवपूर्ण संघर्षों और योगदानों के सौ बरस

कम्युनिस्ट पार्टी के सौ बरसों का दौर जबर्दस्त संघर्षों का, आजादी की लड़ाई के दौरान और आगे चलकर आजादी के बाद भी, अनगिनत क्रांतिकारियों की जबर्दस्त कुर्बानियों का और जनता के मुद्दों को राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में उनके उल्लेखनीय योगदानों का दौर है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के बाद गुजरी शताब्दी, आधुनिक भारत के इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। अपनी स्थापना के समय से ही कम्युनिस्ट समसामयिक, विकसनशील घटनाविकास का वैज्ञानिक भौतिकवादी विश्लेषण लाए थे और जनता की जीवन दशा और स्वतंत्र भारत के राजनीतिक ढांचों, दोनों में सुधार के लिए जरूरी समाधान प्रस्तुत कर रहे थे। ये समाधान एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक, गणराज्य की संकल्पना पर आधारित थे, जो अंतत: हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को, हमारी समूची जनता की आर्थिक मुक्ति में तब्दील करने की दिशा में ले जाती है, जो कि समाजवाद के अंतर्गत ही संभव होगा। 

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की शताब्दी के साल भर चलने वाले परिपालन के दौरान, पार्टी की स्थापना के समय से ही लेकर, कम्युनिस्टों के योगदान के समृद्ध  विवरण सामने लाए जाने वाले हैं। इसलिए, इस टिप्पणी में हम खुद को कुछ विशेष रूप से महत्वपूर्ण मुद्दों के रेखांकन तक ही सीमित रखेंगे।


कम्युनिस्ट पार्टी का उदभव 
पहले विश्व युद्घ से पहले के वर्षों में और विश्व युद्घ के दौरान भी, हमारे देश के राष्ट्रीय आंदोलन में नरमपंथी नेतृत्व और जनता की क्रांतिकारी कतारों के बीच, संघर्ष देखने को मिल रहा था। इसी बीच 1917 में रूसी क्रांति की विजय सामने आयी, जिसने भारत के क्रांतिकारियों को उसी प्रकार प्रेरित किया, जैसे शेष दुनिया भर में क्रांतिकारियों को प्रेरित किया था। इन दोनों कारकों के योग ने, अनेक भारतीय क्रांतिकारियों को कम्युनिस्ट बनने के लिए प्रेरित किया।
कुछ भारतीय क्रांतिकारी, बहुत ही कठिनाइयों भरी यात्रा कर के, दुनिया की पहली सर्वहारा क्रांति के देश तक जा पहुंचे। भारत से आए इन्हीं क्रांतिकारियों ने पहल कर के, 17 अक्टूबर 1920 को कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी। इसने पहली बार, भारत भर में बिखरे क्रांतिकारियों के ग्रुपों को, माक्र्सवाद-लेनिनवाद की सैद्घांतिक तथा व्यावहारिक शिक्षा मुहैया करायी। बंबई, कलकत्ता, मद्रास तथा यूपी-पंजाब क्षेत्र के छोटे-छोटे कम्युनिस्ट ग्रुपों को, 1925 में कानपुर में एक कम्युनिस्ट कान्फेंस के लिए एकजुट किया गया और भारत के अंदर कम्युनिस्ट पार्टी ने काम करना शुरू कर दिया। एम एन रॉय तथा ब्रिटिश कम्युनिस्टों के नेता, रजनी पामदत्त द्वारा मुहैया करायी गयी सैद्घांतिक-विचारधारात्मक शिक्षाओं ने, अनेक भारतीय कम्युनिस्टों की चेतना को गढ़ा था।

अपनी स्थापना के समय से ही कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आंदोलन के एजेंडा को प्रभावित करना शुरू कर दिया। अखिल भारतीय कांग्रेस के 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में, मौलाना हसरत मोहानी तथा स्वामी कुमारानंद ने एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की गयी थी। लेकिन, गांधी जी इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। अखिल भारतीय कांग्रेस के अगले ही अधिवेशन में, जो 1922 में गया में हुआ था, कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आंदोलन के लक्ष्यों का एक घोषणापत्र वितरित किया था।

भीषण दमन
शुरूआत से ही ब्रिटिश हुकूमत भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संगठित होने से अपने लिए खतरों को पहचान रही थी और उसने एक के बाद एक षडयंत्र केसों के जरिए, भीषण दमनचक्र छेड़ा हुआ था। भारत से बाहर जाने वाले, मुहाजिर क्रांतिकारियों के खिलाफ, जो 1922 की मई से मास्को पहुंचने शुरू हो गए थे, उन्होंने पांच-पांच पेशावर षडयंत्र केस थोपे थे। इसके बाद, 1924 में कानपुर षडयंत्र केस थोप दिया गया। भारत से बाहर निकले अनेक क्रांतिकारियों को देश में वापस लौटने पर गिरफ्तार कर लिया गया और देश में ही रह कर काम कर रहे नेताओं को भी पकड़ा गया और सब को कठोर कैद की सजाएं सुना दी गयीं। इस सबसे पहले, 1915 में गदर पार्टी के आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारियों के खिलाफ लाहौर षडयंत्र केस थोपा गया था। उन्हें भारत में तथा अन्य पड़ौसी दक्षिण -एशियाई देशों में भी वापसी पर, पकड़ कर भीषण सजाएं दी गयी थीं। दोषी घोषित किए गए 291 लोगों में से 42 को तो मौत की सजा ही दे दी गयी और 114 को आजीवन कारावास की सजा दे दी गयी। इसी सिलसिले के हिस्से के तौर पर कम्युनिस्टों के खिलाफ सबसे बड़े पैमाने पर तथा व्यवस्थित तरीके से दमन का औजार बनाया गया मेरठ षडयंत्र केस को। 20 मार्च 1929 को शुरू हुए इस षडयंत्र केस में, कम्युनिस्ट पार्टी के 31 प्रमुख नेताओं को एक साथ समेट लिया गया।

वास्तव में इन कम्युनिस्ट नेताओं के अपनी सजा काटकर बाहर आने और फिर से सार्वजनिक जीवन में कूद पडऩे के बाद ही, 1934 से भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का अखिल भारतीय केंद्र व्यवस्थित तरीके से काम शुरू कर पाया। उसके बाद से आज तक, उसके सक्रिय रूप से काम करने का सिलसिला टूटा नहीं है।

राष्ट्र के भविष्य की तीन संकल्पनाओं की टक्कर
आजादी की लड़ाई के दौरान समावेशी भारत की जो संकल्पना, भारत के भविष्य की सबसे प्रबल संकल्पना के रूप में उभर कर सामने आयी, उसका उदय इस लड़ाई के दौरान राष्ट्र  के भविष्य की तीन अलग-अलग संकल्पनाओं के बीच निरंतर टकराव के बीच से हुआ था। इनमें एक तो कांग्रेस से जुड़ी मुख्यधारा बनकर उभरी संकल्पना ही थी, जो स्वतंत्र भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक गणराज्य के रूप में देखती थी। दूसरी संकल्पना कम्युनिस्टों की थी, जो पहली संकल्पना से सहमत तो थे, लेकिन इससे आगे तक जाते थे। उनका कहना यह था कि ऐसी धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक व्यवस्था भी तब तक टिकाऊ नहीं होगी, जब तक स्वतंत्र भारत पूंजीवाद के रास्ते पर ही चलता रहेगा। इस तरह, कम्युनिस्टों की संकल्पना  यह थी कि हमारे देश को जो राजनीतिक आजादी हासिल होनी है, उसे और आगे सभी नागरिकों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति तक ले जाया जाना चाहिए और ऐसी मुक्ति समाजवाद के अंतर्गत ही आ सकती है।

इन दोनों ही संकल्पनाओं के खिलाफ, एक तीसरी संकल्पना भी थी, जिसकी यह दलील थी कि स्वतंत्र भारत का चरित्र, उसके निवासियों की धार्मिक संबद्घताओं से तय होना चाहिए। इस संकल्पना की दो तरह की अभिव्यक्तियां थीं-मुस्लिम लीग, जो ‘इस्लामी राज्य’ की पैरोकार थी और आरएसएस, जो ‘हिंदू राष्टï’ का पैरोकार है। इनमें से पहली अभिव्यक्ति को, देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के साथ और ब्रिटिश शासकों की मदद तथा उनके बढ़ावे से, अपने प्रयास में कामयाबी भी मिल गयी, जिसके नतीजे में अब तक तनाव पल ही रहे हैं। बाद वाली अभिव्यक्ति ने, जो स्वतंत्रता मिलने के समय अपना लक्ष्य हासिल करने में विफल हो गयी थी, आधुनिक भारत को एक घोर असहिष्णु, फासीवादी ‘हिंदू राष्ट्र’ की अपनी परिकल्पना में रूपांतरित करने की अपनी कोशिशें लगातार जारी रखीं। महात्मा गांधी की हत्या इसी सचाई पर उसकी निराशा को प्रतिबिंबित करती थी कि भारत के स्वतंत्रता संघर्ष ने, आरएसएस की संकल्पना को और उसकी राजनीतिक परियोजना को ठुकरा दिया था।

साफ है कि आज चल रही विचारधारात्मक लड़ाइयां तथा आज हो रहे राजनीतिक टकराव एक प्रकार से, भारत के भविष्य की इन तीन अलग-अलग संकल्पनाओं के बीच टक्कर के जारी रहने को ही दिखाते हैं।

वामपंथ की भूमिका
कम्युनिस्ट पार्टी ने, भारत की एक समावेशी कल्पना के उभरने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उसने ऐसा किया था, अपने छेड़े संघर्षों के जरिए, बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दों को राष्ट्रीय  आंदोलन के मंच पर लाने के जरिए। सबसे पहला तो यह कि कम्युनिस्टों ने देश के विभिन्न हिस्सों में जो भूमि संघर्ष छेड़े थे, उनके चलते भूमि सुधार का मुद्दा राजनीतिक मंच के केंद्र में आ गया था। कम्युनिस्टों के नेतृत्व में केरल में पन्नप्रा वायलार, बंगाल में तेभागा आंदोलन, असम में सुरमा वैली संघर्ष, महाराष्ट्र  में वर्ली आदिवासी विद्रोह जैसे आंदोलन हुए थे, जिनमें सबसे बढकऱ था तेलंगाना का सशस्त्र किसान संघर्ष। इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप जमींदारी व्यवस्था तथा बड़ी-बड़ी जागीरों का अंत हुआ, करोड़ों लोग सामंती दासता के जुए से मुक्त हुए और ग्रामीण भारत के शोषित तबके स्वतंत्रता के संघर्ष में खिंच आए। इसके विपरीत, कांग्रेस का नेतृत्व तो ग्रामीण भारत में शोषक वर्गों को ही अपना साझीदार बनाने की कोशिशों में लगा हुआ था।

दूसरे, कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्र भारत में राज्यों के भाषावार पुनर्गठन के लिए लोकप्रिय संघर्षों की अगुआई की। इस तरह, आज अगर भारत का राजनीतिक नक्ïशा, बहुत हद तक वैज्ञानिक तथा जनतांत्रिक आधार पर खड़ा नजर आता है, तो इसका श्रेय सबसे बढकऱ कम्युनिस्ट पार्टी को ही जाता है। विशाल आंध्र, एक्य केरला तथा संयुक्त महाराष्टï्र जैसे आंदोलनों का नेतृत्व, बाकी लोगों के अलावा ऐसे लोगों द्वारा किया जा रहा था, जो देश के सबसे अग्रणी कम्युनिस्ट नेता बनकर सामने आए थे। इसने, भारत में रहने वाली अनेक भाषाई जातीयताओं के, समता के आधार पर, एक समावेशी भारत में एकीकृत होने का रास्ता तैयार किया।

तीसरे, धर्मनिरेक्षता के प्रति वामपंथ की सुदृढ़ वचनबद्घता, भारतीय यथार्थ की पहचान पर आधारित थी। वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के फौरन बाद, 1920 में ही पार्टी की ओर से एम एन रॉय ने, 1920 के सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठïभूमि में लिखा था कि सांप्रदायिक विभाजन की एक ही काट है-साम्राज्यवाद और शोषक वर्गों के खिलाफ सभी जातियों तथा सभी धर्मों के मेहनतकशों की वर्गीय एकता।

भारी विविधताओं वाले भारत की एकता को तो इस विविधता में समाए साझे के सूत्रों को मजबूत करने के जरिए ही पुख्ता किया जा सकता है, न कि इस विविधता पर कोई एकरूपता थोपने के जरिए। लेकिन, आज सांप्रदायिक ताकतें ठीक ऐसी ही एकरूपता थोपने के रास्ते पर चल रही हैं। जहां साझा सूत्रों को मजबूत करने की जरूरत, भारत की सामाजिक विविधता के सभी पहलुओं के संबंध में सच है, धार्मिक विविधता के मामले में इसका महत्व और भी ज्यादा है। भारत के विभाजन तथा उसके बाद आयी भीषण सांप्रदायिक विभीषिका के बाद तो धर्मनिरपेक्षता, समावेशी भारत का एक अविभाज्य तत्व ही बन गयी है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है, धर्म का राज्य और राजनीति से अलग रखा जाना। इसका अर्थ यह है कि शासन अविचल रूप से हरेक नागरिक की अपना धर्म चुनने की स्वतंत्रता की तो रक्षा करेगा, लेकिन उसका न अपना कोई धर्म होगा और न वह किसी धर्म का पक्षधर होगा। लेकिन, व्यवहार में स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता को, सभी धर्मों की समानता में घटा दिया गया है। इसमें, बहुसंख्यक समुदाय के धर्म के प्रति एक झुकाव तो अंतर्निहित ही है। वास्तव में इससे भी आज सांप्रदायिक तथा तत्ववादी ताकतों को खाद-पानी मिलता है।

उभरते शासक वर्ग और वर्गीय संघर्ष
भारत का पूंजीपति वर्ग, जो शायद औपनिवेशिक देशों में सबसे ज्यादा विकसित पूंजीपति वर्ग था, स्वतंत्रता के बाद पूंजीवादी विकास के रास्ते पर चलने के लिए बहुत ही उत्सुक था। सत्ताधारी वर्ग की भूमिका संभालने के लिए, उसने एक ओर भूस्वामियों के साथ गठजोड़ कर लिया और दूसरी ओर, सत्ता हस्तांतरण के लिए साम्राज्यवादियों के साथ सौदेबाजी का रास्ता अपनाया। इस तरह, उन्होंंने यह सुनिश्चित किया कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन, साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद, दोनों से देश को मुक्त कराने का अपना लक्ष्य पूरा ही नहीं कर सके। इसलिए, कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत में क्रांति के चरण को, जनवादी क्रांति के चरण के रूप में परिभाषित किया जिसमें तीन काम पूरे किए जाने थे-सामंतवादविरोधी, साम्राज्यवादविरोधी और इजारेदार पूंजीविरोधी।

खुद हमारे देश में और देश के बाहर के भी, कम्युनिस्ट आंदोलन के अनेक शुभचिंतक यह सवाल पूछते हैं कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी, समाजवाद का अपना लक्ष्य हासिल क्यों नहीं कर पायी? जब उसके आस-पास ही स्थापित हुईं चीन, वियतनाम, कोरिया की कम्युनिस्ट पार्टियां अपने लक्ष्य में कामयाब हो गयीं, भारत में ऐसा न हो पाने की क्या वजह थी? इस सवाल का जवाब कम से कम यह नहीं है कि भारतीय कम्युनिस्टों के समर्पण या कुर्बानियों में कोई कमी थी। सचाई यह है कि बड़ी-बड़ी वर्गीय लड़ाइयों का नेतृत्व करने का और राष्ट्रीय मुक्ति के लक्ष्य के लिए तथा मजदूर वर्ग, किसानों व करोड़ों अन्य उत्पीडि़तों की हिमायत में असाधारण कुर्बानियों का, भारतीय कम्युनिस्टों का रिकार्ड गौरवपूर्ण रहा है। वे भारत में क्रांतिकारी आंदोलन की बेहतरीन परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे।

मार्क्सवाद-लेनिनवाद एक सृजनात्मक विज्ञान है। उसका जीवित सार है-ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण। जब ‘परिस्थितियों’ का सही तरह से आकलन नहीं किया जाता है या जब ‘विश्लेषण’ का बदलती हुई परिस्थितियों से मेल नहीं रह जाता है, गलतियां होती हैं। भारत की आजादी की लड़ाई में कम्युनिस्टों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका जरूर अदा की, फिर भी वे उस तरह से मुक्ति संघर्ष का नेतृत्व नहीं हासिल कर पाए, जैसा चीन, वियतनाम या उत्तरी कोरिया में हुआ था।

ठोस परिस्थतियों को लेकर, जैसे कि शासक वर्ग का वर्गीय चरित्र क्या है, भारतीय क्रांति का रास्ता क्या होना चाहिए आदि, कम्युनिस्टों के बीच मतभेदों के चलते, वक्त के साथ उनके बीच कई विभाजन हुए। स्वतंत्र भारत के शासक वर्ग के अपने सही विश्लेषण के जरिए सी पी आइ (एम), भारतीय जनता के कहीं बड़े हिस्सों को वर्गीय लड़ाइयों में गोलबंद करने में कामयाब रही और इस तरह सबसे बड़ी कम्युनिस्ट ताकत बनकर सामने आयी है।
संसदीय और संसदेतर संघर्षों का योग स्थापित करने के जरिए सी पी आइ (एम), राजनीतिक घटनाक्रम के प्रवाह को उल्लेखनीय रूप से प्रभावित करने में सफल रही है। भारतीय संसद में उसकी भूमिका के अलावा, प.बंगाल की वाम मोर्चा सरकारों ने, केरल में 1957 में बनी पहली कम्युनिस्ट सरकार तथा उसके बाद वहां आयीं एलडीएफ सरकारों ने तथा त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकारों ने भी, आधुनिक भारतीय राजनीति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है।

बहरहाल, पिछले कई वर्षों में सी पी आइ (एम) का संसदीय प्रभाव बहुत घट गया है। दक्षिणपंथ, अपनी राजनीतिक परियोजना के सबसे समझौताहीन विरोधी के नाते, कम्युनिस्टों को खासतौर पर निशाना बनाए रहा है। इस हमले के हिस्से के तौर पर शारीरिक हमले किए जा रहे हैं, दमनचक्र चलाया जा रहा और हिंसा तथा आतंक की राजनीतिक संस्कृति कायम की जा रही है। यही पहले बंगाल में हुआ, आगे चलकर त्रिपुरा में हुआ और अब केरल में एलडीएफ सरकार को अस्थिर करने की नाकाम कोशिशों के रूप में सामने आ रहा है।

लेकिन, इस सब के बीच भी सी पी आइ (एम) इस दौर में शोषित वर्गों के, सबसे बढकऱ मजदूर वर्ग तथा किसानों के, संघर्षों को संगठित करने वाली मुख्य ताकत बनी रही है। इन्हीं संघर्षों से ऐसे अनेक मुद्दे राष्टï्रीय एजेंडा पर आए हैं और आ रहे हैं, जिन्हें सार्वजनिक विमर्श से हटाया नहीं जा सकता है।

आज की चुनौतियां
कार्पोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ ने, विस्तारवादी सांप्रदायिक उन्मत्त राष्ट्रवाद की विचारधारा का जोर-शोर से प्रचार करते हुए, आज हमारे देश में अपना बोलबाला कायम कर लिया है। यह विचारधारा, ‘राष्ट्र ’ तथा उसके हितों को, जनता से ऊपर रखने की विचारधारा है, जो राष्ट्र के नाम पर जनता से कुर्बानियां मांगती है, जिसमें अपने जनतांत्रिक अधिकारों का समर्पण करने की मांग भी शामिल है। पिछले ही दिनों जब नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एनआइए) कानून में संशोधनों पर लोकसभा में बहस हो रही थी, गृहमंत्री ने गरज कर कहा था कि इन संशोधनों का विरोध करने वाले, आतंकवादियों का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें बचा रहे हैं! लेकिन, सचाई यह है कि ये अति-दमनकारी संशोधन, सभी नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों और उनकी नागरिक स्वतंत्रताओं में गंभीर रूप से काट-छांट करते हैं। भाजपा सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने भर के लिए किसी को भी, ‘राजद्रोह’ के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है तथा जेल में डाला जा सकता है। यह एक पुलिस राज को वैधानिक जामा पहनाया जाना नहीं तो और क्या है?

पिछले ही दिनों जिस तरह जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा छीना गया है तथा वहां की जनता पर क्लैम्पडाउन थोपा गया है; जिस तरह असम में एनआरसी को लेकर उथल-पुथल फैली है और शेष भारत में उसका विस्तार करने की धमकियां दी जा रही हैं; जिस तरह नागरिकता संशोधन विधेयक के जारिए नागरिकता को धर्म के आधार पर परिभाषित करने के तथा मुसलमानों को ही बाहर रखने के मंसूबे जताए जा रहे हैं; ये सब  इसी के स्पष्टï इशारे हैं कि आज हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था का, अस्तित्व ही दांव पर लगा हुआ है।

इस दक्षिणपंथी राजनीतिक सुदृढ़ीकरण को चुनौती, वामपंथ और मध्यमार्ग से वामपंथ की ओर झुका हुआ सुदृढ़ीकरण ही दे सकता है।

सी पी आइ (एम) इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा है। कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की शताब्दी का परिपालन, इसके लिए प्रेरणा का तथा इसके मौके का भी  काम करेगा कि हम अपनी कमजोरियों पर काबू पाएं और कम्युनिस्ट आंदोलन को मजबूत करें, जो कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा के लिए भी जरूरी है और उसे शोषण के खात्मे के रास्ते पर आगे ले जाने के लिए भी जरूरी है।

इंकलाब जिंदाबाद का नारा, जिसे मौलाना हसरत मोहानी ने गढ़ा था और जिसे भगत सिंह ने अमर कर दिया, सांप्रदायिक राष्ट्रवादी उन्माद के मौजूदा हमले का मुकाबला करने का प्रेरक आह्वïन है। जनता के जनवाद की स्थापना और समाजवाद के रास्ते पर आगे बढऩे के संघर्षों को सुदृढ़ करना ही होगा। 


About Author

सीताराम येचुरी

लेखक - सीपीआई (एम ) के महासचिव, पूर्व सांसद है ।

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