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महामारी के कुछ बुनियादी सबक 

इस बार की महामारी कौन सा रास्ता लेगी, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। वैश्विक महामारियां विचित्र पैटर्नों का प्रदर्शन करती हैं।

फोटो - गूगल

 मौजूदा महामारी का कुल मिलाकर सबक यही है कि नवउदारवाद ने हमारे देश को जिस दिशा में धकेल दिया है, उसे पलटा जाए और एक सार्वभौम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और सार्वभौम सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का निर्माण किया जाए। वर्ना कितनी ही अमूल्य जानें इनके अभाव के चलते गंवानी पड़ेंगी, जबकि इस नुकसान से आसानी से बचा सकता था।  
कोरोना वाइरस का हमला अब तक तो एक शताब्दी पहले आयी स्पेनिश फ्लू की महामारी से काफी कम घातक साबित हुआ है। स्पेनिश फ्लू की चपेट में दुनिया भर में 50 करोड़ लोग आए थे, जो उस समय की दुनिया की आबादी के करीब 27 फीसद के बराबर था। इस महामारी की चपेट में आए लोगों में से करीब 10 फीसद की मौत हो गयी थी। वैसे इस महामारी से हुई मौतों के अनुमानों में भारी अंतर है और 10 फीसद को हम एक प्रकार से अलग-अलग अनुमानों का औसत कह सकते हैं। कुछ अनुमानों के अनुसार भारत में ही इस महामारी में 1 करोड़ 70 लाख लोग मारे गए थे। इसके विपरीत, कोरोना वाइरस के प्रकोप की चपेट में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक दुनिया भर में तीन लाख से कुछ ज्यादा लोग आ चुके थे। इस रोग की शिकंजे में आए लोगों में से, 3 फीसद से कम की मौत हुई है।

इस बार की महामारी कौन सा रास्ता लेगी, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। वैश्विक महामारियां विचित्र पैटर्नों का प्रदर्शन करती हैं। मिसाल के तौर पर 1919 की स्पेनिश फ्लू महामारी, एक बार बैठती दिखाई दी थी और उसके बाद 1918 के अक्टूबर में और भी विकराल रूप लेकर फूट पड़ी थी। और इसके बाद कुछ ही समय में हमेशा के लिए गायब भी हो गयी थी। इसी प्रकार, मौजूदा महामारी कौन सा रास्ता लेगी, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।

सार्वभौम सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की अपरिहार्यता
फिर भी, इस महामारी के कुछ बुनियादी सबक तो अब तक ही साफ होकर सामने भी चुके हैं। अगर यह महामारी जल्दी बैठ जाती है, तब तो इन सबकों की बात न सुनने की कीमत बहुत ज्यादा नहीं होगी। लेकिन, अगर यह महामारी लंबी चलती है तो, इसके नतीजे बहुत विनाशकारी होंगे क्योंकि हमने अतीत में उन सबकों को सीखना मंजूर नहीं किया था। इनमें दो सबक  खासतौर पर महत्वपूर्ण हैं।

पहले सबक का संबंध, एक ऐसी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के एकदम अपरिहार्य होने से, जो समूची जनता को कवर करती हो। चूंकि अब तक भारत में इस बीमारी की चपेट में आने वालों का आंकड़ा कुछ सौ तक ही है, इतनी संख्या के लिए विशेष व्यवस्थाओं के तहत सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में उपचार मुहैया कराने में मुश्किल नहीं हुई है। इसी प्रकार, चूंकि वाइरस के लिए टैस्ट की प्रक्रिया से गुजरने वाले लोगों की संख्या इसी हिसाब से थोड़ी है, सार्वजनिक सुविधाओं में ये टैस्ट भी बिना खास मुश्किल से किए जा सके हैं। लेकिन, अगर टैस्ट की प्रक्रिया से गुजारे जाने वालों और इस वाइरस के संक्रमण की चपेट में आने वालों, दोनों की संख्या बढ़ती है, तो हमारे देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य-रक्षा सुविधाएं, जो वैसे भी बहुत कम हैं तथा जिन्हें वक्त गुजरने के साथ कमजोर से कमजोर ही किया जाता रहा है, इस बोझ को उठाने में पूरी तरह से असमर्थ ही हो जाएंगी। दूसरी ओर, चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं, ऊंचे दाम पर ही टैस्ट की तथा उपचार की सुविधाएं मुहैया करा रही होंगी, मरीजों की विशाल संख्या तो सिर्फ पर्याप्त संसाधन न होने के चलते इस महामारी के रहमो-करम पर छोड़ दी जाएगी। तब इस महामारी द्वारा की जा रही तबाही का शुद्घ वर्गीय चेहरा, अपनी पूरी विकरालता में सामने आ जाएगा।

अगर सरकार आपात स्थितियों को देखते हुए, निजी अस्पतालों को इस महामारी के रोगियों का मुफ्त टैस्ट तथा उपचार करने के लिए बाध्य कर सकती हो, तब तो फिर भी स्थिति भिन्न होगी। लेकिन, ऐसा होने की शायद ही कोई संभावना है। आखिरकार, अब तक भी तो भारत में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो निजी अस्पतालों को ऐसे मामलों तक में मरीजों को अनिवार्य रूप से भर्ती करने तथा उनका मुफ्त इलाज करने के लिए बाध्य करता हो, जिनके उपचार के लिए मरीज का अस्पताल में भर्ती होना अनिवार्य होता है, जैसे दुर्घटना के शिकार हुए लोग या अचानक दिल के दौरे या दिमाग के दौरे के शिकार। अमरीका तक में, जो कि दुनिया का सबसे ज्यादा बाजार-संचालित देश है, अनेक प्रांतों में इस तरह के कानूनी प्रावधान मौजूद हैं और आपातकालीन उपचार के यानी निर्विकल्प उपचार के सभी मामलों में, जिसमें बड़ी सर्जरियां तथा मरीज के अंतत: अस्पताल से छुट्टïी पाकर घर जाने तक के सर्जरी के बाद के उपचार भी शामिल है, अस्पताल एक पैसा भी वसूल नहीं कर सकता है, भले ही मरीज को कोई बीमा कवर हासिल नहीं हो। लेकिन, भारत में इसके उलट, हालांकि निजी अस्पतालों को सरकार द्वारा सस्ती जमीन मुहैया कराए जाने तथा दूसरी अनेक रियायतों के रूप में भारी सुविधाएं मिलती हैं, फिर भी उनके लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि सिर्फ प्रथमोपचार कर के अपनी जान छुड़ा लेने के बजाए, ऐसे निर्विकल्प उपचार के मामलों में मुफ्त इलाज मुहैया कराएं।

आर्थिक संकट पर संकट 
सीखने वाला दूसरा सबक यह है कि आवश्यक वस्तुओं की एक सार्वभौम सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का होना भी नितांत अनिवार्य है। विश्व मंदी पर इस महामारी के असर के संबंध में काफी कुछ लिखा जा चुका है। चीन, जो हाल तक विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहा था, इस महामारी का केंद्र रहा है तथा इसके चलते उसके उत्पादन में कमी आना तय है, जो विश्व की सकल मांग में कमी लाएगा। इसी प्रकार, चीन से शेष दुनिया के लिए लागत सामग्रियों की आपूर्ति में कमी का, विश्व उत्पाद पर प्रतिकूल असर पडऩा तय है। इसके ऊपर से इस महामारी के चलते पर्यटकों के टै्रफिक तथा यात्रियों के टै्रफिक में भारी गिरावट हुई है, जिसकी अन्य क्षेत्रों के अलावा एअरलाइन तथा होटल उद्योगों पर बहुत भारी मार पड़ेगी और इस सबका और भारी गुुणनकारी असर होगा। इस तरह, इस महामारी के चलते विश्व अर्थव्यवस्था का सिकुडऩा तो तय ही है।

लेकिन, एक और पहलू है जिसकी ओर कम ही ध्यान गया है। इस महामारी से बचने के लिए करोड़ों लोगों से जो व्यावहारिक रूप से घर से बाहर ही नहीं निकलने का तकाजा किया जा रहा है, उससे बहुत सारी आवश्यक वस्तुओं की मांग बहुत बढ़ जाने वाली है। यह मांग, महामारी का प्रकोप चल रहे होने के दौरान उपभोग के लिए चीजें जमा कर के रखने के लिए ही नहीं होगी बल्कि इससे भी ज्यादा होगी क्योंकि दूसरों को चीजें जमा करते देखकर, लोग चीजों की कमी हो जाने की आशंका से, ज्यादा-ज्यादा खरीद रहे होंगे। जब लोग यह समझ रहे हों कि उन्हें काफी समय तक अपने घरों में ही बंद रहना पड़ सकता है, लोगों के जरूरत की चीजें जमा करने और वास्तव में जितनी जरूरत हो सकती है उससे ज्यादा जमा करने में, अचरज की कोई बात नहीं है। इसके अलावा इस तरह से लोगों के जरूरत से ज्यादा भंडार करने से पैदा होने वाली चीजों की कमी की प्रत्याशा से, मालों का सट्टïाबाजार करने वाले इन मालों की जमाखोरी करेंगे और इससे कीमतें और बढ़ जाएंगी। इस तरह कुल मिलाकर यह कि इस महामारी के चलते, अनेक आवश्यक मालों की भारी तंगी पैदा हो जाने वाली है।
सार्वभौम सार्वजनिक 
वितरण व्यवस्था जरूरी

वास्तव में इसकी शुरूआत तो भारत तक में हो भी चुकी है, जबकि अब तक यहां इस महामारी की चपेट में आए लोगों की संख्या कम ही है। लेकिन, आने वाले दिनों में इस लिहाज से समस्या और बढ़ जाने वाली है और इसकी मेहनतकशों पर बहुत बुरी मार पडऩे जा रही है। यह दलील दी जा सकती है कि वे तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में आते ही होंगे और इसलिए, इस पहलू से ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है। लेकिन, यह दलील दो कारणों से गलत है। पहला तो यही कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए, सारी की सारी आवश्यक वस्तुएं तो मुहैया करायी नहीं जाती हैं। दूसरे, कोई सभी मेहनतकश तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में आते नहीं हैं। जब से हमारे देश में एपीएल और बीपीएल का विभाजन शुरू हुआ है और सस्ती दरों पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा बाद वाली श्रेणी तक सीमित कर दिया गया है, जरूरतमंद लोगों की विशाल संख्या को वास्तव में इस सुविधा के दायरे से बाहर ही कर दिया गया है।

इन हालात में, लोगों के जरूरत से ज्यादा भंडारण करने के चलते बाजार से मालों के गायब होने तथा सटोरियों की गतिविधियों की दुहरी मार, मेहनतकशों के लिए बहुत भारी साबित होगी। इसीलिए, ऐसी सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली जरूरी हो जाती है, जो सिर्फ खाद्यान्न ही नहीं, विभिन्न आवश्यक वस्तुएं सस्ती दरों पर लोगों को मुहैया कराए।
इसकी अपरिहार्यता, संकट के ऐसे दौरों में स्वत:स्पष्टï हो जाती है। लेकिन, चूंकि अब इस तरह के दौर बार-बार आने लगे हैं, यह और भी जरूरी हो जाता है कि ऐसी सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अर्थव्यवस्था का एक स्थायी तत्व बना दिया जाए, जो अनेकानेक आवश्यक वस्तुएं सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए।

इसे दूसरी तरह से कहें तो आज हम जिस तरह की महामारी से गुजर रहे हैं, युद्घ जैसे हालात की जैसी है। जिस तरह से युद्घ के दौर में जरूरत की चीजों की किल्लत सिर्फ पैदा ही नहीं होती है बल्कि सटोरियों द्वारा खुद जमाखोरी के जरिए पैदा भी की जाती हैं और इसकी काट करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली जरूरी हो जाती है, उसी प्रकार वर्तमान महामारी से निपटने के लिए सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली जरूरी है। और इस तरह की महामारियों की बारंबारता के बढऩे को देखते हुए, इसे हमारी अर्थव्यवस्था का स्थायी तत्व ही बना दिया जाना चाहिए।
नवउदारवाद के इस रास्ते को पलटो
नियंत्रणकारी अर्थव्यवस्था के दौर में सार्वभौम स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था और एक सार्वभौम वितरण व्यवस्था, दोनों को महत्वपूर्ण जरूरत माना जाता था। लेकिन, नवउदारवाद ने दोनों का ही अंत कर दिया। उसने शिक्षा तथा स्वास्थ्य रक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं के निजीकरण को ही बढ़ावा दिया है। और उसका  इस पर जोर रहा है कि खाद्यान्न के बाजार में बड़े निजी व्यापारियों को लाया जाए, जिसमेें व्यापार में लगे बहुराष्टï्रीय निगम भी शामिल हैं। वास्तव में विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में विकसित देशों ने भारत पर इसके लिए काफी दबाव भी डाला था कि सरकारी खरीद की व्यवस्था को समेटने के जरिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को करीब-करीब समेट ही दिया जाए। लेकिन, भारत की किसी भी सरकार की उनकी मांग मानने की हिम्मत नहीं हुई और इसी का नतीजा है कि हमारे यहां अब भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली बनी हुई है, हालांकि इसे कतरकर बीपीएल तक सीमित कर दिया गया है। संक्षेप में यह कि देश पर इस तरह के नुकसानदेह बदलाव थोपने वाला नवउदारवाद, हमारे देश को ज्यादा बारंबारता से महामारियों में भी झोंक रहा है, जिनका मुकाबला करने का तकाजा है कि इन बदलावों को पलटा जाए।

बेशक, मौजूदा महामारी का कुल मिलाकर सबक यही है कि नवउदारवाद ने हमारे देश को जिस दिशा में धकेल दिया है, उसे पलटा जाए और एक सार्वभौम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और सार्वभौम सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का निर्माण किया जाए। वर्ना कितनी ही अमूल्य जानें इनके अभाव के चलते गंवानी पड़ेंगी, जबकि इस नुकसान से आसानी से बचा सकता था। 
 


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प्रभात पटनायक

लेखक - देश के जाने माने अर्थशास्त्री है.

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