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सावित्री बाई फुले: अज्ञानता और अंधविश्वास का प्रसार रोकना होगा

3 जनवरी सावित्री बाई फुले का जन्म दिन है। यूं अब भाजपा और दबी जुबान में संघ परिवार भी सावित्री बाई फुले और महात्मा ज्येतिबा राव फुले का नाम लेने लगा है, मगर उन्हें अपने महापुरुषों में शामिल नहीं किया है। वे ऐसा कर भी नहीं सकते हैं। और जहां तक सावित्री बाई फुले की शिक्षाओं का प्रश्र है, उनका तो वे भूलवश भी जिक्र नहीं करते हैं।

3 जनवरी सावित्री बाई फुले का जन्म दिन है। यूं अब भाजपा और दबी जुबान में संघ परिवार भी सावित्री बाई फुले और महात्मा ज्येतिबा राव फुले का नाम लेने लगा है, मगर उन्हें अपने महापुरुषों में शामिल नहीं किया है। वे ऐसा कर भी नहीं सकते हैं। और जहां तक सावित्री बाई फुले की शिक्षाओं का प्रश्र है, उनका तो वे भूलवश भी जिक्र नहीं करते हैं।

ज्योतिबा फुले ने जब शिक्षा के प्रसार का बीड़ा उठाया था, तो उन्होने अपनी पहली शिष्या भी सावित्री बाई को ही बनाया था। बाद में दोनों ने मिलकर 18 विद्यालय छात्राओं के लिए खोले। उनका मानना था कि शिक्षा का प्रसार कर ही अज्ञानता के अंधेरे को मिटाया जा सकता है। शोषितों, अछूतों और महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया जा सकता है। उनका सत्यशोधक समाज समाज में व्याप्त दकियानूसी अंधविश्वासों पर प्रहार करता था और जनता में जनवादी और आधुनिक विचारों को प्रसार करता था। वे धर्म के शोषणकारी रूप को बेनकाब करते थे।

मगर आज जब सावित्री बाई फुले की जन्मदिन मनाया जा रहा है, तब भाजपा और संघ परिवार शिक्षा पर ही हमला कर रहा है। नव उदारीकरण की नीतियों के तीन दशक में शिक्षा का निजीकरण हुआ है। निजीकरण का अर्थ ही शिक्षा को गरीब बच्चों की पहुंच से दूर करना है। भाजपा के शासनकाल में यह हमला और तेज हुआ है। हाल ही में डिस्ट्रिक इनफरमेशन सिस्टम आफ एज्यूकेशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश भर में 1 लाख 50 हजार स्कूल एक शिक्षक के सहारे चलते हैं, इन स्कूलों में 84 लाख बच्चे पढ़ते हैं।  यह बच्चे और स्कूल छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड और ओडि़सा राज्यों में हैं। इसमें से ओडि़सा को छोडक़र बाकी सभी राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार बच्चों की बहुपक्षीय प्रतिभा को उभारने और निखारने के लिए कम से कम एक स्कूल में दो शिक्षकों को होना अति आवश्यक है। इसके लिए पांच लाख अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता है, मगर सरकार जब शिक्षकों की व्यवस्था नहीं कर रही है तो यह सावित्री बाई फुले के अरमानों के विपरीत गरीबों को शिक्षा से वंचित करना है।

मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार तो उन्हें शिक्षा से वंचित करने की तैयारी में है। वह 1 लाख 10 हजार सरकारी स्कूलों को बंद करने जा रही है। जाहिर है कि आज कल केवल गरीब, दलित और आदिवासी व अल्पसंख्यक बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। इन स्कूलों के बंद होने का अर्थ है कि इन गरीब दलित, आदिवासी परिवारों के बच्चे ऊंची फीसों वाले निजी स्कूलों में नहीं पढ़ पायेंगे, जिसके कारण वे शिक्षा से ही वंचित हो जायेंगे।
सबसे आगे मध्यप्रदेश की बात करने वाली भाजपा की सरकार शिक्षा के क्षेत्र में प्रदेश को और पीछे ले जा रही है। बात अगर दो सरकारों और दो विचारों की करें तो अंतर साफ दिखाई देता है। जहां केरल की वामपंथी जनवादी मोर्चे की पिन्नाराई विजयन सरकार ने अपने पहले ही बजट में दस हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था कर सरकारी स्कूलों को सुविधा और गुणवत्ता के मामले में इतना ऊपर उठाने का निर्णय लिया है कि निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूल की ओर आकर्षित हो सकें, वहीं मध्यप्रदेश की सरकार सरकारी स्कूलों को बंद कर रही है, जिससे गरीब बच्चे शिक्षा से वंचित होगें।

जब शिक्षा महंगी होती है तो शिक्षा से वंचित वही तबके होते हैं, जिनको शिक्षा की सबसे अधिक जरूरत होती है। मध्यप्रदेश इसका उदाहरण है। 22 दिसंबर 2017 को इंडियन एक्सप्रेस में मध्यप्रदेश की स्कूली शिक्षा के बारे में छपे तथ्य चौकाने वाले हैं। इन आंकड़ों के अनुसार  स्कूल चलो अभियान पर अरबों रुपए विज्ञापनों में बहा देने के बाद भी प्रदेश के 2.9 प्रतिशत बच्चों की पंजीयन नहीं हो पाया है, जबकि इसकी तुलना वामपंथी मोर्चे की त्रिपुरा की सरकार से करें तो 2016 की रिपोर्ट के अनुसार 6 से 14 साल की आयु वाले केवल 601 बच्चों का दाखिला ही स्कूलों में नहीं हो पाया है। दुर्भाग्य से यह वो बच्चे हैं जो मानसिक या शरीरक रूप से अपंग हैं। इंडियन एक्सप्रेस की इसी रिपोर्ट के अनुसार 6 से 14 वर्ष आयु के 8.5 फीसद बच्चे स्कूल में दाखिल होने के बाद प्राईमरी शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं।

सावित्री बाई फुले का जोर महिला शिक्षा पर अधिक था, क्योंकि उनका मानना था कि महिला को शिक्षित कर पूरे परिवार और समाज को शिक्षित किया जा सकता है। इसलिए छात्राओं की शिक्षा के विशेष प्रयास होने चाहिये। मगर मध्यप्रदेश में 7 से 10 साल की आयु की 2.9 फीसद बच्चियों का स्कूलों में दाखिला ही नहीं हुआ है। वैसे जिनका दाखिला हो गया है, उनकी शिक्षा की भी कोई गारंटी नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस की उसी रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 15 से 16 साल की 29 प्रतिशत बच्चियां स्कूल से बाहर हैं। सामंती समाज और गरीबी ने उन्हें स्कूल से निकाल कर चूल्हे चौके या घर आंगन के कामों में कैद कर दिया है।

अब अगर शिक्षा की गुणवत्ता की बात करें, तो मध्यप्रदेश स्कूल चलो अभियान की तो बात करता है, मगर स्कूलों में बच्चों को शिक्षा देने में सरकार की कोई दिलचश्पी नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस के आंकड़े पता नहीं मुख्यमंत्री ने पढ़े होंगे या नहीं। मगर इन्हें दोहरा देना बेहतर होगा। इनके अनुसार कक्षा आठ में पढऩे वाले 2.9 प्रतिशत बच्चे कोई भी किताब पढ़ पाने की स्थिति में नहीं हैं। इनमें से 13.5 प्रतिशत आठवी में पढऩे वाले बच्चे कक्षा एक की किताब ही पढ़ सकते हैं, जबकि 64.3 प्रतिशत आठवीं के बच्चे कक्षा दो की किताब तो पढ़ सकते हैं, मगर इसके उपर की नहीं।

अंक गणित की हालत तो और भी खराब है। रिपोर्ट के अनुसार कक्षा पांच में पढऩे वाले 6.7 फीसद बच्चे 1 से 9 तक के अंकों की पहचान नहीं कर पाते हैं, जबकि कक्षा आठ में पढऩे वाले 1.6 प्रतिशत बच्चों के लिए इन अंकों को पहचान पाना मुश्किल है। कक्षा आठ में पढऩे वाले 8.1 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के कैपिटल लैटर ए. बी. सी. डी. भी पढ़ नहीं सकते हैं।

दूसरी ओर अगर त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार की शिक्षा की स्थिति को देखा जाये तो प्राइमरी के बच्चों का स्कूल छोडऩे का प्रतिशत त्रिपुरा में 2.19 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत उससे दुगने से भी अधिक 5.13 प्रतिशत है। यदि अपर प्राइमरी की बात की जाये तो त्रिपुरा में स्कूल छोडऩे वाले बच्चों का प्रतिशत 2.87 प्रतिशत है जबकि अखिल भारतीय स्तर पर यह औसत चार गुना से भी अधिक 11.72 प्रतिशत है।

हमने मध्यप्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता को ऊपर देख चुके हैं। भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा कराये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कक्षा 3 के त्रिपुरा के छात्रों को भाषा ज्ञान में 281 अंक प्राप्त हुए हैं,जबकि राष्ट्रीय औसत 257 अंक है। इसी कक्षा के अंक गणित में त्रिपुरा के छात्रों को 262 अंक प्राप्त हुए हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 252 है। अब यदि कक्षा पांच की बात करें तो भाषा ज्ञान में त्रिपुरा के छात्रों को 253 अंक प्राप्त हुए हैं, इसका राष्ट्रीय औसत 241 है। गणित में इस कक्षा के छात्रों को 245 अंक मिले हैं, इसका राष्ट्रीय औसत 241 है।

प्रश्र यह है कि क्या मध्यप्रदेश के बच्चे पढऩा नहीं चाहते हैं? उत्तर यह है कि प्रदेश सरकार उन्हें पढ़ाना ही नहीं चाहती है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार जब केन्द्र सरकार स्वच्छ भारत अभियान चला रही है, मध्यप्रदेश में तो सरकार ने शिक्षकों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को भी लोगों को खुले में शौच करने से रोकने पर लगा दिया है, तब प्रदेश के 20 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं हैं। जिन स्कूलों में शौचालयों का निर्माण हो चुका है, उनमें भी पानी के अभाव या दूसरे कारणों की वजह से 35.9 प्रतिशत शौचालय इस्तेमाल किये जाने योग्य नहीं हैं।

सरकार की ओर से बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओं के नारे की हकीकत यह है कि सह शिक्षा वाले स्कूलों में 23.4 प्रतिशत स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं है। जिन स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय हैं भी, वहां भी 19.7 प्रतिशत शौचालय उपयोग किये जाने की अवस्था में नहीं है। 17 प्रतिशत शौचालयों पर तो ताले लगे हुए हैं।

यह तो आधार भी सुविधा की बात है। यदि शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की बात करें तो ग्रामीण क्षेत्रों में 97.5 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में कम्प्यूटर की व्यवस्था नहीं है। अगर शिक्षकों की ही बात की जाये तो प्रदेश में 9806 स्कूलों में एक भी शिक्षक नहीं हैं। विड़बना यह है कि इन स्कूलों के बच्चे कक्षा आठ तक तो बिना पढ़े ही पास हो जाते हैं। सरकार के अपने रिकार्ड के अनुसार ही शिक्षक वर्ग 2 और 3 के 30 हजार पद रिक्त पड़े हुए हैं। इन्हें भरने में सरकार की कोई दिलचश्पी नहीं है।

स्कूलों में असुविधाओं और अव्यवस्था की स्थिति इतनी बदतर है कि कैग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 53 हजार 345 स्कूल बच्चों के लिए असुरक्षित हैं। इन स्कूलों की बांउड्री वाल न होने से असामाजिक तत्व स्कूल में घुस आते हैं। आवारा पशुओं और असामाजिक तत्वों से बच्चों के लिए असुरक्षा बनी ही रहती है। रिपोर्ट के अनुसार 64 हजार स्कूलों में हैडमास्टर के लिए अलग से कोई दफ्तर नहीं है, या तो कक्षा वाले रूम में या फिर अध्यापकों के लिए जो कमरा होता है, उसी में बैठ कर उसे प्रशासनिक काम करना होता है। प्रयोगशाला की बात करें तो प्रदेश में 10 हजार 763 स्कूलों में प्रयोगशाला नहीं है। राज्य के 5176 स्कूलों में पेयजल की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार की दोहरी और दोगली नीति यह है कि एक ओर दावा करती है कि वह खेलों को प्रोत्साहन दे रही है, जबकि 44 हजार 754 स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है।

सरकार की मनुवादी नीति की बात करें, तो जाति प्रमाणपत्र के नाम पर दलित आदिवासी बच्चों की छात्रवृत्ति कई सालों से सरकार ने रोक रखी है। स्कूलों में भी जातिय भेदभाव इतना है कि एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 93 प्रतिशत दलित कक्षा में आगे बैठने का साहस नहीं कर पाते हैं,79 प्रतिशत दलित बच्चे कक्षा में पीछे ही बैठते हैं।  57 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल के नल से पानी तभी पी पाते हैं, जब कोई गैर दलित छात्र उन्हें पानी पिलाता है। 79 प्रतिशत बच्चे मध्यान्ह भोजन पकाने वाली रसोई में नहीं जा पाते हैं। 68 प्रतिशत दलित बच्चों का कहना है कि मध्यान्ह भोजन में उन्हें रोटी उपर से फेंक कर दी जाती है। 46 प्रतिशत दलित बच्चे सही से समझ में न आने पर शिक्षक से दोबारा पूछने का साहस नहीं कर पाते हैं।

सावित्री बाई फुले के जन्मदिन को मनाते समय जरूरत कर्मकांड करने की नहीं है, बल्कि उन विचारों और सरकारों के खिलाफ लडऩे की जरूरत है, जो समाज के उन वंचित तबकों को शिक्षा से हमेशा हमेशा के लिए वंचित कर देना चाहते हैं, जिनको शिक्षित करने का सपना सावित्री बाई फुले ने देखा था। उनके सपने को साकार करना है तो अज्ञानता और अंधविश्वास के अंधेरे का प्रसार करने वाली ताकतों के खिलाफ भी लडऩा होगा।

('लोकजतन' 1 से 15 जनवरी 2018 अंक में प्रकाशित लेख)


About Author

जसविंदर सिंह

राज्य सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) मध्यप्रदेश

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