डॉ. अजय खरे स्मृति व्याख्यान में जन स्वास्थ्य के मुद्दों पर हुए व्याख्यान
भोपाल। देश में हेल्थ सेक्टर में क्यूरेबल हेल्थ पर जोर दिया जा रहा है, जबकि पब्लिक हेल्थ पर जोर दिया जाना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों को निर्मित करना जरूरी है, जिसमें लोगों को बीमारियां नहीं हो और यह तभी संभव है, जब राजनीतिक एवं आर्थिक संदर्भों में स्वास्थ्य के मुद्दों को देखा जाए। ये बातें आज डॉ. अजय खरे स्मृति व्याख्यान 2018 में जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कही। व्याख्यान का आयोजन जन स्वास्थ्य अभियान, मध्यप्रदेश एवं आल इंडिया फैडरेशन आफ गवर्नमेंट डाक्टर्स एसोसिएशन द्वारा संयुक्त रूप से हिन्दी भवन में किया गया। व्याख्यान में ‘‘वर्तमान परिस्थितियों में सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल की चुनौतियां एवं विकल्प’’ के तहत दो विषयों पर वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किए।
सामाजिक अर्थशास्त्री एवं जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ रवि दुग्गल ने ‘‘सार्वभौम स्वास्थ्य देखभाल और स्वास्थ्य बीमा’’ विषय पर मुख्य वक्तव्य देते हुए कहा कि यूएसए और भारत में ही मार्केट आधारित हेल्थ केयर है। यूएसए में इंश्योरेंस के बावजूद एक बड़ी आबादी स्वास्थ्य सुविधा से वंचित है। इसका अर्थ है कि हेल्थ इंश्योरेंस कारगर नहीं है। पूंजीवादी देशों में भी स्वास्थ्य राज्य के जिम्मे है। आल्माआटा में सभी के लिए स्वास्थ्य की बात की गई थी। 1982 में पहली बार स्वास्थ्य के सार्वभौमिकीकरण की बात भारत में हुई। जीडीपी में बढ़ोतरी हुई और ग्रामीण एवं दुरस्थ आबादी को लाभ मिला। उस दौर में सभी स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टर्स भी होते थे। स्थिति बेहतर थी। उस समय सरकारी कंपनियां दवाइयां बनाती थी। ड्रग्स प्राइज पर नियंत्रण था। लेकिन नब्बे के उत्तरार्द्ध में हेल्थ केयर में यूजर चार्जेज लगने लगा। उसके बाद सरकारी क्षेत्र में डाक्टर्स कम होने लगे। हेल्थ केयर में कार्पोरेट के प्रवेश के बाद निजी का हस्तक्षेप बढ़ा। न्यू टेक्नालाजी के आने पर निजी क्षेत्र ज्यादा बढ़े।
निजी इंश्योरेंस कंपनियों के आने के बाद स्वास्थ्य का निजीकरण तेजी से बढ़ा। भारत में जीडीपी का ढाई फीसदी खर्च करने पर भी गुड प्राइमरी हेल्थ एंड रेफरल केयर हो सकता है। नीति आयोग का नजरिया है कि क्यूरेटिव केयर से सरकार को हट जाना चाहिए। इससे स्वास्थ्य की स्थिति में ज्यादा गिरावट आएगी। मध्यप्रदेश में प्रति व्यक्ति हजार रुपए स्वास्थ्य पर खर्च होता है। आज स्वास्थ्य देखभाल पूरी तरह से सप्लायर्स यानी मार्केट पर आश्रित है। एनएचपीएस यानी इंश्योरेंस में कई समस्याएं है। कंपनियां सोशल काॅज के लिए नहीं है। वे कमाई करेंगी। सरकार जो पैसा इंश्योरेंस कंपनियों को देना चाहती है, उसके बजाय उतना खर्च वह हेल्थ सिस्टम को बेहतर करने में लगाए। कम्युनिटी मॉनिटरिंग सिस्टम को इंप्रूव करने की जरूरत है। प्रति व्यक्ति कम से कम 3500 रुपए खर्च किया जाना चाहिए।
येनेपोया मेडिकल कालेज, मैंगलौर, कर्नाटक के प्रोफेसर डा. अनुराग भार्गव ने ‘‘भारत में महामारी के संदर्भ में जन स्वास्थ्य के मुद्दों की समीक्षा’’ विषय पर मुख्य वक्तव्य देते हुए टीबी और डायबिटिज पर चर्चा करते हुए भारत में जन स्वास्थ्य की स्थिति की समीक्षा की। उन्होंने कहा कि डॉक्टर को बीमारियों के साथ-साथ लोगों में भी रुचि रखना चाहिए। भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय सिर्फ हेल्य केयर का काम कर रहा है, लेकिन वह जन स्वास्थ्य पर काम नहीं कर रहा है। जन स्वास्थ्य गड़बड़ होने पर बीमारियां होती हैं।
देश में स्वास्थ्य के केन्द्र में नीति एवं सेवाएं हैं और समाज एवं लोग परिधि पर हैं। डॉक्टर को इलाज के अलावा पाॅलिसी पर भी नजर रखनी चाहिए। फोकस चेंज करने पर स्थिति में बदलाव आएगा। भारत की टीबी को लेकर दुनिया को चिंता है, लेकिन भारतीय नीति निर्माताओं को चिंता नहीं है। डायबिटिज एवं बीपी अब ग्रामीणों में भी आम होता जा रहा है। वर्तमान दौर में बीमार व्यक्ति को उपभोक्ता की तरह देखा जा रहा है। आज गरीबी के कारण बीमारी हो सकती है और बीमारी के कारण गरीबी हो सकती है। यह एक दुश्चक्र है। पब्लिक सर्विसेस जो योजनाबद्ध तरीके से खत्म किया जा रहा है।
क्लाइमेट चेंज को हम हल्के में ले रहे हैं, जबकि यह जन स्वास्थ्य का बड़ा मुद्दा है। गरीबी में पैदा होने पर जीवन प्रत्याशा 11 साल कम हो जाती है। टीबी से साल में लगभग 5 लाख लोग मर रहे हैं। यह जन स्वास्थ्य का एक संकेतक है। यदि जन स्वास्थ्य बेहतर होगा, तो टीबी के मरीज कम हो जाएंगे। टीबी एक सामाजिक बीमारी है। मेडिकल की पढ़ाई का नजरिया भी बदलने की जरूरत है। बायोमेडिकल मॉडल या बिहैवियरल मॉडल के बजाय सोशल-पोलिटिकल अप्रोच पर जोर देना चाहिए, क्योंकि बीमारी रोकथाम में इस मॉडल की भूमिका ज्यादा है।
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